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________________ [ तृतीय श्रधिकाय मूलाचार प्रदीप ] ( १६४ ) करता है उसको ऋद्धि गौरव नामका दोष लगता है ||१३|| गौरव नामका दोष श्राविष्कृत्य समाहात्म्यमासनायें । सुखाय वा कुर्यायो वन तस्यदोषो गौरवसंज्ञकः ॥ १४ ॥ अर्थ - जो मुनि किसी विशेष प्रासन आदि के द्वारा अपना माहात्म्य प्रगट कर वंदना करता है अथवा जो अपने किसी सुखके लिये गंदना करता है उसको गौरव नामका दोष लगता है ।। १४ । । स्तेनित नामक दोष --- चौबुद्ध चास्वर्वादीनां करोति यः बंदनाम् । चौरयिश्वास्णमन्येषां तस्याधः स्तेनिताभिधः ॥ ११५ ॥ अर्थ- जो मुनि चोर की बुद्धि रखकर अन्य मुनियों से छिपाकर गुरु प्रादि की वंदना करता है उसके स्तेनित नामका दोष लगता है ।। १५॥ प्रतिनीत दोष प्रतिकूलत्रयो भूत्वा देवगुर्वादियोगिनाम | वंदना कुरुते तस्य प्रतिनीतायोमलः ||१६|| अर्थ - जो मुनि देव शास्त्र गुरुसे प्रतिकूल होकर वंदना करता है उसके प्रतिनीत नामका दोष लगता है ॥१६॥ दुष्ट नामक दोष विघाय कलहायन्यः सह क्षन्तव्यमाशु यः । अत्मा वंदनां कुर्यात्सबुष्टदोषमा'नुयात् ॥१७॥ अर्थ – जो मुनि किसी से कलह करके बिना उससे क्षमा कराये वंदना करता है उसके ष्ट नामका दोष लगता है ॥ १७ ॥ जिस नामक दोष - श्रन्यान्यस्तजयन्तंगुल्या वा गुर्वादितजितः । श्रयते वंदनां तस्यवोषस्तजितसंज्ञकः ।। १८ ।। अर्थ -- जो मुनि दूसरों को तर्जना करता हुआ गंदना करता है अथवा गुरुके द्वारा तर्जना किया हुआ वंदना करता है उसको तजित नामका दोष लगता है ।। १८ ।। शब्द नामक दोष वारयः क्रियाकर्मनिजेच्छया । करोति तस्य जायेत शब्ददोषोध कारकः ॥१३॥ 1 अर्थ - जो मुनि मौन को छोड़कर अपनी इच्छानुसार बोलता हुआ क्रियाकर्म (नंदना) करता है उसको पाप उत्पन्न करनेवाला शब्द नामका दोष लगता है ॥ १६ ॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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