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________________ पूलाचार प्रदीप ] ( ४८८ ) [ द्वादश अधिकार एक जीव के एक समय में एक माथ कितनी परीषह हो सकती हैएकस्मिन्समये होकजीवस्ययुगपद्ध.वि । परोषहा प्रजायन्तेगिना संकोनविंशति ।।३१८३।। मध्येशीतोष्णयोनमेकएषपरोषहः । शय्या धर्मानिषद्यानांतर्यकः स्यानचान्मथा ॥३१८४।। अर्थ-एक जोन के एक समय में एक साथ जीवों के उन्नीस परीषह हो सकती है। क्योंकि शीत और उष्ण परीषह में से कोई एक हो परीषह होती है तथा शय्या, चर्या, निषद्या इन तीनों परीषहों में से कोई एक परीषह होती है। इसमें कभी अंतर नहीं होता ।।३१८३.३१८४॥ ___किस-किस गुणस्थान में कौन-कौन से परीषह होते हैंमिथ्यात्वाधप्रमत्तान्तगुणस्थानेषुसप्तसु । सर्वेपरीषहाः सन्ति हापूर्वकरणेसताम् ।।३१८५॥ प्रादर्शनंविनाह्य कविशति स्युःपरोषहाः । विशतिश्चानिवृत्तौ हि विनारतिपरीषहात ।।३१८६।। शुक्लध्यानेन तत्रैवप्रनष्टे वेदकमरिग । स्त्र्याख्ये परीषहे नष्टे से स्थुरेकोनविंशतिः ॥३१८७॥ तलोमानकषायस्यक्षयात्तत्रैव वाशमात् । तान्यनामनिषद्यास्पाक्रोशयांचापरोषहाः १३१८८।। सरकारादिपुरस्काराचामीभि: पंचविन। । अभिवत्यारिषु क्षीणकषायान्तेषुनिश्चितम् ॥३१८६। गुणस्थानचतुष्केषु चतुर्दशपरीषहाः। छस्थवीतरागारणा भवन्त्यल्या:सुखप्रवाः ॥३१६०।। नष्टेधातिविधीक्षीणकवाये च परीषहाः । प्रजाज्ञानाह्वयालाभा नातिनातिधातिनः ॥३१६१।। केवलज्ञानिनोवेदनीयायविद्यमानत।। उपचारेण कथ्यन्तेत्रकादशपरोषहाः ।।३१९२१॥ अर्थ-मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में सब परोषह होती है । अपूर्वकरण नाम के पाठयें गुणस्थान में प्रदर्शन को छोड़कर बाकी को इकईस परीषह होती है । अनिवृत्ति करण नामके नौवें गुणस्थान में अरति परीषह . को छोड़कर बाकी की बीस परीषह होती है । उसो नौवें गुणस्थान में जब शुक्लध्यान के द्वारा वेद कर्म नष्ट हो जाता है तब स्त्री परीषह भी नष्ट हो जाती है और उस समय नौवें गुणस्थान में उनईस परीषह ही रह जाती है । इसी नौवें गुणस्थान में आगे चलकर जब मान कषाय नष्ट हो जाता है अथवा मान कषाय का उपशम हो जाता है तब नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, यांचा और सरकार पुरस्कार ये पांच परीषह नष्ट हो जाती है, उस समय उसी नौवें गुणस्थानमें इन पांचों के बिना धौदह परोषह रह जाती है । ये चौदह परीषह नौवं गुणस्थानके इस भाग से लेकर क्षीण कषाय नामके बारहवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में रहती हैं । परंतु छष्यस्थ वीतरागों के अर्थात् ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में ये परीषह बहुत ही थोड़ी रहती है और सुख देनेवाली ही होतो
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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