SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाधार प्रदीप] ( ३६१) [नवम अधिकार अध:कर्म दोष को करनेवाला मुनि उभय लोक में भ्रष्ट हैपबनेपाधनेनानासवानुमनने शठः । पतंतेवाङ मनःकायस्तस्माखोर विमेति न ॥२५४६।। मिथ्याष्टिः स मन्तव्योविरुद्धाचरणाझवि । न तस्यह लोकोस्तिकुकीतिवर्तनात क्वचित् ।। परलोकों न जायेत संयमाचरणाद्विना । किन्तु स्याह.गंतो नूनं गमनं पराभंगतः ॥२५४८) अर्थ-जो मूर्ख मन-वचन-कायसे अनके पकाने, पकवाने का अनुमोदना करने में प्रवर्त होते हैं, इन ऊपर लिखे पंचपापों से नहीं डरते उनको मिथ्याष्टि ही समझना चाहिये । क्योंकि वे विरुद्ध प्राचरणों को ही धारण करते हैं और इसीलिये इस लोक में भी उनकी अपकीति फैल जाने के कारण उनका यह लोक भी बिगड़ जाता है तथा संगमहा दानाम धारण न करने के कारण उनका परलोक भी बिगड़ जाता है । इस प्रकार उनके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं और व्रतभंग होने के कारण वे नरकादिक दुर्गतियों में अवश्य पहुंचते हैं ।।२५४६-२५४८।। प्रायश्चित लेकर पुन: अध:कर्म दोष करनेवाले के तप व्यर्थ हैप्रायश्चित विधायोच्चर्यानक्तिपुनः शठः। प्रथःकर्मकृताहारं तस्य तनिष्फलं भवेत् ।।२५४६।। अर्म-जो मूर्ख अधःकर्म दोष से दूषित पाहार ग्रहण करने के कारण प्रायश्चित्त ले लेते हैं और प्रायश्चित्त लेकर फिर भी अधःकर्म जन्य प्राहार को ग्रहण करते हैं, उनका भी वह सब तपश्चरण निष्फल समझना चाहिये ।।२५४६।। कौन मुनि, मुनियों के गुणों से रहित हैयः साध्यंत्र देशाचौ शुऽशुद्ध थवोभयोः । प्राहारोपधिवासादि यथालन्धं निजेच्छया ।।२५५०॥ शुद्ध वा शुद्धमावत्तेधवत्परीक्षया बिना । मुक्तोयतिगुणःसोऽपि प्रोक्तः संसारषद्धं का ।।२५५१॥ अर्थ-जो मुनि शुद्ध वा अशुद्ध देश में प्रथवा शुद्ध-अशुद्ध मिले हुए देश में आहार उपकरण वसतिका आदि अपनी इच्छानुसार जैसा प्राप्त हो जाय चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध हो उसको अंधे के समान बिना परीक्षा किये हुए ग्रहण कर लेता है, उसको भी मुनियों के गुणों से रहित ही समझ लेना चाहिये । उसको भगवान जिनेन्द्रदेव ने संसार को बढ़ाने वाला ही बतलाया है ॥२५५०-२५५१॥ ___ कैसा प्राहार लेने पर मुनि शुद्ध व प्रशुद्ध होता हैयोगोध:कमजाहारे नित्यं परिणतः क्वचित् । प्राप्सेपिप्रासुकेहारे बंधकः स हो भवेस् ॥२५५२।। शु मृगयममाणो योनादि कृताविरगम् । प्रषःकर्मकृतान्नाप्तेश्वविच्छ बोहदोत्र सः ॥२५५३।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy