SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनाचार प्रदीप] ( ६६ ) [द्वितीय अधिकार अर्थ- जो स्त्रो लोप कर आई हो; दीवाल प्रादि झाड़फर आई हो; किसी को स्नान करा कर पाई हो, स्तन पान करले हुए, बालक को छोड़कर पाई हो सया इसी प्रकार के पापरूप कार्यों को करके जो स्त्री वा पुरुष आया हो ऐसे दाता के द्वारा जो वान दिया जाता है उस सबमें दायक नामका दोष प्रकट होता है । ऐसे दाता के हाथ से मुनियों को दान कभी नहीं लेना चाहिये ॥४४५-४४६।। (७) उन्मिश्र दोषपृथ्व्यांबुना च बोलेन, हरितेन त्रासांगिभिः । यो देयो मिश्र प्राहारो, दोषश्चोम्मिश्र एव सः ।। अर्थ - जिस आहार में सचित्त पृथ्वी, जल, बोज, हरित बनस्पति और प्रस जीव मिले हों ऐसे आहार को लेना (७) 'उम्मिश्र' दोष है ।।४४७॥ (c) परिगणन दोष--- तिलोव तथा लंड, लोवर्क परणकोदकम् । तुषोदकं घिरानीरं, तप्तं शीतस्त्रमागतं ॥४४॥ विभीतक हसेस क्याटिक सूर्णस्तथाविधम् । स्वात्मीय रसवर्णादिभिामापरिणतं जलं ॥४४६॥ न माझं संयतर्जातु सवा बाह्माणि तानि च । परीक्ष्य चक्षुषा सर्वाण्यही परिणतानि च ।।४५०॥ अर्थ-तिलों के धोने का पानी, चावलों के धोने का पानी, चनों के बोने कर पानी, चावलों को भूसी के धोने का पानी तथा जो पानी बहुत देर पहले गरम किया हो और ठंडा हो गया हो तथा हरड, बहेडा के चूर्णसे अपने रस वर्षको बदल न सका हो ये सब प्रकार के जल संयमियों को कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये । जिस जलका वर्ष या रस किसी चूर्ण आवि से बदल गया हो ऐसा जल आंखसे अच्छी तरह देखकर परीक्षा कर संयमियों को ग्रहण करना चाहिये ॥४४८-४५०।। किस तरह का जल ग्राह्य हैसंसप्त वा जलं पाह्य, कृतादिदोष दूरगम् । तथा परिणतं द्रव्यं, नानावणे मुमुक्षुभिः ।।४५१ ।। अर्थ-अथवा मोक्षको इच्छा करनेवाले संयमियोंको कृत, कारित, अनुमोदना आदिके दोषों से रहित गरम जल ग्रहण करना चाहिये अथवा अनेक वर्णके द्रव्यों से (हरड, इलायचो आदि के चूर्ण से) जिसका रूप, रस बदल गया हो; ऐसा जल ग्रहण करना चाहिये ।।४५१।। अपरिणत दोषयोत्राणारिणतान्येव तानि पह्वाति मधोः। तस्या परिणतो दोवो जायते सत्त्वघातकः ॥४५२।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy