SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ] [ বুকা শিকার यथाख्यति चारित्र का स्वरूपयथातथ्येन सर्वेषो वतादीनां च पालनम् । प्रागमोक्श्यान्तरेस्वानुभवनं परमात्मनः ।।२६८२।। निर्मोहाना भवेद्यत्र शुक्ल ध्यानसुधाशिनाम् । तच्चारित्रं यथाख्यानाभिधंघातिथियातक्षम ||३|| अर्थ--जो मुनिराज मोहनीय कर्म से रहित हैं और जो शुक्लध्यानरूपी अमृत का पान कर रहे हैं, ऐसे मुनिराज जो समस्त धताधिकों को यथार्थ रीति से पालन करते हैं और गम में कहे अनुसार अपने प्रात्मा में परमात्मा का अनुभव करते हैं उसको घातिया कमों को नाश करने वाला यथाख्यात चारित्र कहते हैं ॥२६८२२९.३॥ ___ संयम की महिमा एवं उसको पालने की प्रेरणाचारित्रापंचभिरतश्चतुभिर्वाशियोगमा । ध्यानिभिलम्यते नूनं समस्तगुण मूषिता ।।२९८४॥ संयमेनसतांस्याच्च संघरोखिलकर्मणाम् । निजरासद्गुणग्रामः सुखं वाचामगोचरम् ||२६८५।। संयमेनसमं स्वल्पं कृतं तपोमहाफलम् । फलत्यत्र न संदेहो धीमता स्वशिवादिषु ।।२९८६॥ सयमेन विना पुसा तपोध्यानप्रसादिकम् । वृषा भवेन्न घ सार्थसर्वपापभवाश्रयात् ॥२९८७।। विदित्वे विधायन समिति पुरस्कारले पयरत्नत्रयविशुद्धये ॥२६८।। अर्थ-इन पांचों प्रकार के चारित्र से अथवा चार प्रकार के चारित्रसे ध्यानी पुरुषों को समस्त गुणों से विभूषित ऐसी मुक्तिरूपी स्त्री अवश्य प्राप्त हो जाती है । इस संयम को धारण करने से सज्जन पुरुषों के समस्त कर्मों का संवर होता है, समस्त कों को निर्जरा होती है, समस्त गुणों के समूह प्राप्त होते हैं और वाणी के अगोचर सुख प्राप्त होता है। इस संयमके साथ-साथ थोड़ासा किया हुमा तप भी बुद्धिमानों को मोक्षादिक की प्राप्ति में महा फल देता है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इस एक संयम के बिना मनुष्यों के तप, ध्यान और व्रतादिक सब व्यर्थ हो जाते हैं, सार्थक नहीं होते क्योंकि बिना संयम के समस्त पापों का प्राव होता ही रहता है । यही समझकर संवर करने वालों को रत्नत्रय को विद्धि के लिये तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ इस संयम का पालन करना चाहिये ॥२६८४-२६८८।। तप का स्वरूप और उसके भेदपंसाक्षविषयाणांयस्समस्तेहानिरोधनम् । ततपः सूरिभिः प्रोक्त परं सतर्मकारणम् ||२६८९ll प्रागुक्त पहिषामेवविस्तरेण तपोलिलम् । पापिभिविषेय तत्मसर्माय भवापहम् ॥२६९|| अर्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयों में अपनी समस्त धानों का निरोष करना - -
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy