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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४०८ ) [दशम अधिकार शुद्धतापूर्वक मुक्तिपूर्वक पचनों से समस्त मुनियों से क्षमा मांगनी चाहिये तथा अपने मनमें सबको क्षमा कर देना चाहिये ॥२६४७-२६४८॥ ___ स्वमण के त्याग की प्रेरणाहिश्यावियोयिभिः साई परित्यज्य निजंगणम् । मोहाविहामयेसोस्मानिर्गच्छसिसमाषये ॥४॥ अर्थ-तदनंतर अपना मोह नाश करने के लिये दो तीन मुनियों को साथ लेकर तथा अपने गणका त्याग कर समापि धारण करने के लिये वहां से चल देना वाहिये ।।२६४६।। परीक्षा करके ही आचार्य से समाधि का निवेदन करना चाहियेकमात्परगणस्यं स विख्यातंसूरिघुगषम् । प्रसाद्य संपरीक्ष्योधनवा कार्यनिदेवपेत् ।।२६५०॥ अर्थ-फिर अनुक्रम से चलकर किसी परगण में विराजमान प्रसिद्ध प्राचार्य के समीप पहुंचना चाहिये और उन प्राचार्य की अच्छी तरह परीक्षा कर तथा उनको नमस्कार कर उनसे अपना कार्य निवेदन करना चाहिये ।।२६५०।। नौसे गुणों से युक्त आचार्य को निर्यापकाचार्य बनानेविश्वभष्यहितोच क्तः पंचापारपरोमहान् । भागमे कुशली बीमामलोभ्यःपरमायषित् ।।२६५९।। भालोचितरहत्यापरिखानीसूरिसत्तमः । यः स निर्यापकः कार्यः उत्तमः स्वसमाधये ।।२६५२।। ___ अर्थ-जो समस्त भव्य जीवों के हित करने में तत्पर हों, पंचाचार पालन करने में तत्पर हों, सर्वश्रेष्ठ हों, आगम में कुशल हों, बुद्धिमान हों, कभी क्षुब्ध न होते हों, परमार्थ को जाननेवाले हों, जो किसी मुनि के द्वारा बालोचना किये हुये दोषों को कभी प्रगट न करते हों और जो सर्वोत्तम हों ऐसे उत्तम प्राचार्य को अपनी समाधि के लिये निर्यापकाचार्य बनना चाहिये ॥२६५१-२६५२॥ निर्यापकाचार्य की आवश्यकतायमापत्तनमासन्नाः कर्णधार विनाबुधो । रत्नहेमभुता मायः प्रमज्यन्ति प्रमावतः ॥२६५३॥ तपाक्षपनावोऽत्र मुक्तिद्वीपसमीपगा। । ज्ञानबरणामरत्नपूर्णा भवाम्बुषो ॥२६५४॥ निमण्जन्ति न संबेहो विना निर्माप वि । प्रमादेन सतो मम्मामयौनिर्यापकाः बुधः ॥२६५५॥ अर्थ-जिसप्रकार रत्न और स्वर्ण से भरी हुई सभा नगर के समीप पहुंची हुई कोई मात्र बिना मल्लाहों के अपने प्रमाद से ही समुद्र में डूब जाती है उसीप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपी अमूल्य रत्नों से भरी हुई और मोक्षपी
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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