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________________ मूलाचार प्रदीप] ( २१५ ) [ चतुर्थ अधिकार है, आहार की लंपटता नष्ट होती है और जिह्या इंद्रिय वश में हो जाती है। बैठकर भोजन करने से आहार संज्ञा बढ़ती है और रसना इंद्रिय से उत्पन्न हुए वैषयिक सुखोंमें अत्यन्त लंपटता बढ़ जाती है । इसके सिवाय बैठकर भोजन करने में कातरता सिद्ध होती है । इसलिये सज्जन मुनियोंको यह प्रतिज्ञा रहती है कि जब तक मेरे दोनों हाथ मिल सकते हैं और मेरे दोनों पर खड़े होने के लिये स्थिर रह सकते हैं तभी तक मैं आहार ग्रहण करूगा अन्यथा उपवास धारण करूगा । इसप्रकार के अनेक गुण प्रगट होने के लिये स्थिति भोजन नामका उत्कृष्ट गुण बतलाया है ।।३४-३७॥ स्थिति भोजन नहीं करने से हानिजात्वेति मुनिभिः सर्वे व्याधिक्लेशादि कोटिषु । प्राणनाशेपि न प्राह्यमुपविष्टेन भोजनम् ॥३८॥ तिर्थक स्थितेन सुप्तेन वांगाधोनमनेन च । सुखाय वा प्रभादेनसंत्यज्य स्थितभोजनम् ॥३६॥ ___ यतो मूलगुरणस्यास्य भगेन पापमुल्वरणम् । पापेन दुर्गतौ पुसा भ्रमणं चायशश्चिरम् ।।४०५ इति थोषं परिज्ञाय निविष्टः संयतः स्वचित् । जलपानं च पूगावि भक्षणं न विधीयते ॥४१॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को करोड़ों व्याधि और क्लेश होनेपर भी तथा प्रारणों का नाश होनेपर भी बैठकर भोजन कभी नहीं करना चाहिये । जो मुनि टेढ़ी रोतिसे खड़े होकर आहार लेता है वा खड़े ही खड़े सोता हुआ आहार लेता है वा अपने शरीर को नीचा नवाकर पाहार लेता है अथवा सुख के लिये वा प्रभाव के कारण खड़े होकर पाहार नहीं करता तो उसका यह मूलगुण भंग हो जाता है । मूलगुण भंग होने से महापाप उत्पन्न होता है तथा महापाप उत्पन्न होने से इस मनुष्य को दुर्गति में परिभ्रमण करना पड़ता है, तथा चिरकाल तक उसका अपयश यना रहता है । इसप्रकार दोषों को समझकर मुनियों को बैठकर कभी भी जलपान वा सुपारी प्रावि का भक्षण नहीं करना चाहिये ॥३८-४१॥ १ वर्ष के उपवास के पारणे पर भी मुनि बैठकर पाहार नहीं करेंयतः श्रोजिनदेवाचाः षण्मासाग्दादिपारणे । कायस्थित्यहि गृह्णन्ति स्थिस्याहारं च नान्यथा ।। नात्वेतियमिनः कृत्वात्रान्सर निजपाययोः । चतुरंगुलसंख्यानं कुर्वतु स्थितिभोजनम् ।।४३।। अर्थ-देखो तीर्थकर परमदेव छह महीने वा एक वर्ष का उपवास करके भी शरीर को स्थिर रखने के लिये खड़े होकर ही आहार लेते हैं वे बैठकर कभी पाहार महीं लेते । यही समझकर मुनियों को चार अंगुल का अंतर रखकर अपने दोनों पैरोंसे . बड़े होना चाहिये और इसप्रकार खड़े होकर आहार ग्रहण करना चाहिये ॥४२-४३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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