SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २८६) [ 31 अधिकार बहुजन नामक दोष का स्वरूपगुरूपपावितं प्रायश्चित्तं युक्तिमिवं नवा । प्रायश्चित्ताविसदनथे होतिशंका विघाय यस् ॥१८५७।। निकटेऽपरसूरोरणां प्रश्नो विधीयते बुधः । दत्तदण्डस्य निद्यः स दोषो बहुजनात्यकः ॥१८५८।। अर्थ-प्राचार्य ने किसी शिष्य को प्रायश्चित्त दिया हो और फिर यह यह शंका करे कि आचार्य महाराज ने जो यह प्रायश्चित्त दिया है वह प्रायश्चित्त ग्रंथों के अनुसार ठीक है या नहीं तथा ऐसी शंका कर जो दूसरे किसी आचार्य से पूछता है उस समय उस प्रायश्चित्त लेनेवाले के बहुजन नामका दोष लगता है ।।१८५७-१८५८॥ अव्यक्त नामक दोष का स्वरूपस्वसमानयतेरन्ते यद्दोषालोचनं महत् । जिनागमानभिज्ञस्य वोषोऽस्याय्यक्त संज्ञकः ।।१८५६।। अर्थ-जो मुनि जिनागमको न जानने वाले अपने ही समान किसी मुनि के समीप जाकर अपने बड़े-बड़े दोषों को पालोचना करता है, आचार्य से पालोचना नहीं करता है उसके अव्यक्ती नामका दोष लगता है ।।१८५६।। तत्सेवित नामक दोष का स्वरूपसमानोस्यापराधेन मेति चारो प्रतस्य वै । प्रस्म यद्गुरुरणा दत्तं प्रायश्चित्तं तदेव हि ॥१८६०।। ममाप्याचरितु युक्त मस्वेत्यालोचना विभा। तपोभिः शोधनं यत्स दोषस्तत्सेविताभिषः ॥६१।। अर्थ- जो मुनि यह समझकर कि मेरे व्रतों में जो अतिचार लगा है वह ठीक बसा ही है जैसा कि अमुक मुनि के व्रतोंमें अतिचार लगा है इसलिये आचार्य महाराज ने जो प्रायश्चित इसको दिया है वही प्रायश्चित्त मुझे ले लेना चाहिये । यही समझकर जो बिना आलोचना के तपश्चरण के द्वारा अपने व्रतोंको शुद्ध करता है उसके तत्सेवित नामका दोष लगता है ॥१६६०-१८६१॥ दोष सहित पालोचना से व्रतों को शुद्धि नहींअभीषा केनचिदोषेणान्वितालोचनं कृतम् । मायाविना सशल्यानां मनाकशुद्धिकरं न हि ॥६२।। अर्थ- जो मायाचारी शल्यसहित मुनि इन वश वोषों में से किसी भी दोषके साथ पालोचना करते हैं उनकी उस मालोचना से व्रतों को शुद्धि थोड़ी सी भी नहीं होती ॥१८६२॥ दोष रहित मालोचना से ही व्रतों की शुद्धिवशोषामिमांस्स्यपत्या बालकरिवसंयतः । स्वोषकथमं यस्क्रियते शुद्धिकरं हि तत् ।।१८६३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy