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________________ मुलाचार प्रदीप ] [प्रथम अधिकार जिनेन्द्रदेव ने कहे हैं ॥१०५।। विना लेन वतेनास्मात्, सर्वाशेषततवनम् । व्ययं स्याच्च तपो पोरं, यतीनांतुष खंडनम् ॥१०॥ । अर्थ--इस अहिंसा महाव्रत के बिना, बाकी के जितने व्रतों का समुदाय है अथवा जितना भी मुनियों का घोर तपश्चरण है वह सब व्यर्थ है; भूसीको कूटने के समान असार है ॥१०॥ दयापूर्वमनुष्ठान, तपो योगादिभिः कृतम् । भवेन्मोक्षतरोनीज, सतां विधिकारणम् ।।१०।। अर्थ-यदि तपश्चरण, योग प्रादि के द्वारा किया हुअा अनुष्ठान, क्या पूर्वक किया जाता है तो वह सज्जनों को मोक्षरूपी वृक्षका बीज माना जाता है तथा समस्त ऋद्धियों का कारण बन जाता हैं ।।१०७॥ कृत्स्नसत्त्वकृपाक्रांतं, यस्यासौम्मानसं शुभं । सिद्ध समोहितं तस्य, संवरो निर्जरा शिवम् ।। अर्थ-जिस मुनि का शुभ हरय समस्त जीवों की कृपासे भरा हुआ है उसके संबर, निर्जरा और मोक्ष आदि समस्त इष्ट पदार्थ सिद्ध हो जाते हैं ॥१०॥ क्रियते स्वगृहत्यागो, दीक्षा च गृह्यते बुधः । केवलं करुणासिष्य, तां बिना तो निरर्थको ।। ___ अर्थ-बुद्धिमान् लोग जो अपने घरका त्याग करते हैं और दीक्षा ग्रहण करते हैं वह केवल दया की सिद्धि के लिये ही करते हैं। यदि दया नहीं है तो घरका त्याग और दीक्षा दोनों ही व्यर्थ हैं ॥१०॥ विज्ञायेति विषायोच्चैः, सर्व जीव कदम्बकम् । समानं स्वात्मनश्चिशे, रक्षणीयं प्रयत्नतः ।। अर्थ--यही समझकर तथा समस्त जीवों के समूह को अपने हृदय में, अपनी प्रात्मा के समान मानकर, बड़े प्रयत्न के साथ अच्छी तरह उनकी रक्षा करनी चाहिये ॥११॥ गमनागमनोत्सर्ग, प्रावटकार्लेगि संकुले । अहोरात्रे यतीन्द्रश्नादान निक्षेपणाविना ॥१११।। ये यरनचारिलोऽत्रा हो पालयंति बनोसमम् । तेषां सर्व तान्येव, यांति सम्पूर्णतां लघु ॥११२॥ अर्थ-वर्षाकाल में बहुतसे जीवों का समुदाय उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये मुनिराज उन दिनों में गमन, आगमन का त्याग कर देते हैं । उन दिनोंमें जो मुनिराज रात दिन के किसी पदार्थ के ग्रहण करने या रखने प्रादि के द्वारा, यत्नाचार पूर्वक
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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