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________________ भूलाचार प्रदीप] [प्रथम अधिकार इस अहिंसा महानत रूपी उत्तम बलको पालन करते हैं। उनके अन्य समस्त वृत बहुत ही शीघ्र पूर्ण हो जाते हैं ॥११५.११२॥ यदि कश्चिदहो दस्ते, मत्यर्थ कस्यचिन्महीम् । सा रत्नादिपूर्णा स, तथापीच्छति नो मृतिम् ।। प्रतो विश्वांगिनां लोकेऽभयवानात्परं न च । विद्यते परमं वान, वृषा दानं दयां विना ।।११४॥ अर्थ- यदि किसीसे यह कहा जाय कि हम तुझे समस्त रत्नोंसे परिपूर्ण इस समस्त पृथ्वीको देते हैं। इसके बदले तू मर जा, परन्तु इतने पर भी कोई मरने की इच्छा नहीं करता, इसलिये कहना चाहिये कि इस संसार में समस्त जीवोंको अभयदान से बढ़कर और कोई दान नहीं है। यह अभयदान सबसे उत्कृष्ट दान है । दयाके विना, अन्य वान सब व्यर्थ है ।।११३-११४॥ हिंसव पंम्र पापानां, परं पापं निगद्यते । विश्वदुःलाकरी भूता, श्वभ्रद्वारि प्रतालिका ।।११।। ___ अर्थ-पांचों पापोंमें यह हिंसा ही सबसे बड़ा पाप कहा जाता है । यह हिंसा समस्त दुःखोंकी खान है और नरक के द्वार की गली है ॥११५॥ ये धिददुः सहा रोगाः, सर्वदुःखविधामिनः । तेऽखिला निर्वयानां भ, आयंतेत्राषयोऽशुभात् ।। अर्थ-इस संसार में समस्त दुःखों को देने वाले जितने भी कठिन रोग हैं वे सब निर्दयी जीवोंके ही होते हैं तथा इसी निर्दयता के पाप से मानसिक व्याधियां भी होती हैं ॥११६।। दुर्गति जीवधातेन, सद्गति जीव रक्षणात् । देहिनां च विदित्वेति, यविष्टं सत्यमाचरः ।।११७॥ अर्थ-इस संसार में जीवों को जीवों का घात करने से दुर्गति प्राप्त होती है तथा जीयों की रक्षा करने से उत्तम गति प्राप्त होती है । यही समझकर हे जीव, जो तुझे अच्छा लगे सो कर ॥११७।। अहिंसा महाबत की ५ भावना-- एषणा समिति श्चित्तगुप्तीर्या समिती परे। तर्थवादाननिक्षेपणा, ख्यासमिति सत्तमा १११८॥ दशासोफितपानादि, भोजनं पंचभावनाः । इत्यार्या भाषयत्वाध, व्रतस्थार्थमन्वहम् ।।११।। अर्थ-(१) एषरणासमिति (२) मनोगुप्ति (३) ईर्यासमिति (४) आदाननिक्षेपणसमिति (५) आलोकिस पान भोजन । ये पांच इस हिसावत की भावना हैं ॥१८॥ इस अहिंसा महावत को स्थिर रखने के लिये मुनियों को प्रतिदिन इन भावनाओं का चितवन करना चाहिये ॥११॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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