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________________ मूलाचार प्रदीप ] [एकादश अधिकार के पापों का निरोध होता रहता है और कर्मों को निर्जरा होती रहती है । बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियों के विषयों को और परिग्रहों के सुखको जितना त्याग कर सकते हैं उनको उतना त्याग मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक अवश्य कर देना चाहिये । तथा जो शरीर वा पुस्तक आदि ऐसे परिग्रह हैं जिसका त्याग किया ही नहीं जा सकता उनमें समस्त दोषों का कारण ऐसा ममत्व अवश्य छोड़ देना चाहिये ।।३००१-३००३।। परिग्रह में ममत्व धारने से हानिएवं ये कुर्वते नित्यंह्याभिचन्यं परं भवेत् । तेषां धर्मार्णवंदोषसंचयंममकारिणम् ॥३०॥४॥ अर्थ-इसप्रकार जो परिग्रह का त्याग वा ममत्वका त्याग कर देते हैं, उनके धर्मका सागर ऐसा सर्वोत्कृष्ट आफिचन्य धर्म होता है तथा जो परिग्रहादिकों में ममत्व धारण करते हैं उनके समस्त दोषों के समूह आ उपस्थित होते हैं ॥३००४॥ उत्कृष्ट प्राकिचन्य धर्म धारने की प्रेरणामस्वेति ममता त्यक्त्वास कायाधिवस्तुषु । निर्ममत्वाशयः कार्यमाकिवयंशिवाप्तये ॥३००। अर्थ- यही समझकर निर्ममत्व धारण करनेवाले पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये शरीरादिक समस्त पदार्थों में पूर्ण ममत्व का त्याग कर उत्कृष्ट प्राचिन्य धर्म धारण करना चाहिये ।।३००५॥ सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का लक्षणदृश्यन्ते सकला मार्यो यत्रमात्राविसनिभाः। त्यक्तरागैमनोनेत्रब्रह्मचर्य सवुसरम् ॥३००६।। ब्रह्मचर्यरगमुक्तिस्त्री वृणोति ब्रह्मचारिणम् । सधैःगुणः समं शीघ्र स्वर्गश्रियोन का कथा 14001 ___ अर्थ-रागद्वेष को त्याग करनेवाले जो पुरुष अपने मनरूपी नेत्रों से समस्त स्त्रियों को अपनी माता के समान देखते हैं उनके सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य होता है । ब्रह्मचारियों को इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मुक्तिस्त्री समस्त गुणों के साय-साथ आकर स्वयं स्वीकार करती है फिर भला स्वर्ग की लक्ष्मी की तो बात ही क्या है ॥३०.६. ३००७॥ किसका हृदय शुद्ध एवं किसका हृदय अशुद्ध रहता हैउत्पद्यतेपरोधों हमछापा ब्रह्मचारिणाम् । कामिना विसशुद्धिः कव तयाविनाशुभंकुतः ।। अर्थ- ब्रह्मचारियों का हृदय शुश रहता है इसलिये उनको परम धर्म को
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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