SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप] [एकादश अधिकार - रूपी स्त्री की प्राप्ति होती है और मुक्ति के प्राप्त होने से अनंत गुण और अनंत लक्ष्मी के साथ-साथ आत्मा से उत्पन्न होनेबाला अनंत सुख प्राप्त होता है ।।२६६५-२६६६॥ परिसह ग्रहण से हानिसंगादिमूकछया पुसा दुनिंजायतेतराम् । दुानाच्चमहापापं पापादनुःसपरंपरा ।।२९६७॥ अर्थ-परिग्रहादिक में ममत्व रखने से मनुष्यों के अशुभध्यान होता है, अशुभध्यान से महा पाप होता है और पाप से अनेक दुःखों की परंपरा प्राप्त होती है ।।२९६७।। __ परिग्रह त्याग की महिमा आकांक्षा पूर्वक परिग्रह के त्यागने को प्रेरणासंगत्यागसमो धर्मो न जगच्छौसुखाकर।। संगमू निभं पापं न महछवभ्रवःमदम् ॥२६॥ विज्ञायेतिनिहत्यानुसंगाकारहनिमः । शर्मामाणिजपामगागं कुर्वन्तु धर्मदम् ।।२६६६ अर्थ- इस संसार में परिग्रह के स्याग के समान अन्य कोई धर्म नहीं है, क्योंकि यह धर्म तीनों लोकों की लक्ष्मी और सुख की खानि है । इसीप्रकार परिग्रह में मूर्छा रखने के समान अन्य कोई पाप नहीं है, क्योंकि परिग्रह में मूच्र्छा रखना महा नरक के छुःख देनेवाली है । यही समझकर सुख चाहने वाले पुरुषों को धर्म की प्राप्ति के लिये समस्त परिग्रहों की आकांक्षा का त्याग कर देना चाहिये और उसके साथ समस्त परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये । यह परिग्रहों का त्याग ही धर्म की प्राप्ति करानेवाला है ॥२६६८-२६६६।। आकिंचत्य धर्म का स्वरूपदेहोपषिखशर्मादौममत्वं त्यज्यतेत्रयत् । निस्पृहयोगशुद्धया ताकिच्चन्यसुखाकरम् ।।३०००। अर्थ--जो निस्पृह मुनि मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक शरीर परिग्रह और इन्द्रियों के सुख में ममस्व का त्याग कर देते हैं उसको सुख देनेवाला आकिंचन्म धर्म कहते हैं ।।३०००। पुनः परिग्रह के ममत्व के त्यागने की प्रेरणायथा यथा शरीरावौनिर्ममवप्रवर्वते । तया तथा निरोधश्चपापामानिरासताम् ।।३००१॥ प्रक्षार्थोपधिशर्माविस्यक्तु यच्छक्यसे एषैः । तत्त्याज्यसकलं बस्तुमनोवास्कायद्धभिः ।।३००२।। स्पक्तु पच्छक्यले नाहो कायाविपुस्तकादिकम् । त्याज्यं सेषांममत्वं च सर्वयादोषकारणम् ।। अर्थ-जैसे-जैसे शरीराविक में निर्ममत्व बढ़ता जाता है, वैसे हो वैसे सज्जनों
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy