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________________ मूलाचार प्रदीप { २३०) [पंचम अधिकार सूक्ष्म जीवों को अवगाहना का प्रमाणपृथ्व्यप्तेजोमरुज्जीवाः सूक्ष्मावष्टचायगोचराः । अंगुलस्याप्यसंख्यातभागप्रमवपुयुताः ॥३२॥ अर्थ--पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक सूक्ष्म जीव दृष्टिके अगोचर होते हैं और उनका शरीर अंगुस के असंख्यात वें भाग प्रमाण होता है ।।३२॥ सूक्ष्म-स्थूल वनस्पतिकायिक जीव सब जगह हैसर्वन द्विविधा या जलस्थलनभोखिले । सर्ववनस्पतिप्राणिनः प्रत्येकेतरात्मकाः ॥३३॥ ___ अर्थ-वनस्पतिकायिक सूक्ष्म और स्थल दोनों प्रकारके जोय जल स्थल और आकाश आदि सब स्थानों में भरे हुये हैं । इनमें से कुछ प्रत्येक वनस्पति हैं और कुछ साधारण हैं ॥३३॥ साधारण और प्रत्येक वनस्पति का स्वरूपा-- येषां गूढसिरासंधिपर्वाणि स्थुरहोरकम् । समभंग तथा छेव महं च विद्यते भुवि ।।३४।। साधारणशरीरास्तेवानन्त जीवसंकुलाः । एभ्यो विपरीक्षा प्रस्प गिनीमता ।। अर्थ-जिनको सिरा संधि पर्व आदि गढ़ हैं दिखाई नहीं देते तोड़नेसे जिनका भंग समान होता है और जो काटनेपर भी उत्पन्न हो जाते हैं । उनको साधारण शरीर कहते हैं ऐसे साधारण शरीर अनंत जीवों से भरे हुए होते हैं । इनसे जो विपरीत हैं अर्थात जिनका सिरा संधि प्रगट हो गया है और तोड़ने से जिनका समभंग नहीं होता उनको प्रत्येक कहते हैं ॥३४-३५॥ अनन्तकाय का स्वरूप व उसका अनन्तकाय नामको मार्थकतायत्रको मियते तत्र मियन्तेमन्तदेहिनः । पत्रको जायते तत्र जायन्तेनन्तकाधिकाः ॥३६॥ प्रतोत्रंते जिनः प्रोक्ताः जीया अनन्तकायिकाः । भुवि सार्थक नामामोऽनन्तप्राणिमयाः स्फुटम् ॥ ____ अर्थ-एक जीव के मरने पर जहां अनंत जीव मर जांय और एक जीव के उत्पन्न होनेपर जहां पर अनंत जीव उत्पन्न हो जाय ऐसे जीवों को भगवान जिनेन्द्रदेव ने अनंतकाय बतलाया है। उनमें का एक-एक शरीर अनंत जीव स्वरूप होता है इसलिये घे अनंतकाय इस सार्थक नामको धारण करते हैं ।।३६-३७।। नित्य अनन्तकायिक जीवों का स्वरूपअनन्तः प्राणिभि यश्च महामिथ्याघपूरितः । असत्यं जातु म प्राप्त निस्यास्नन्तकायिकाः ।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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