SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ( २६२ ) [ षष्ठम् अधिकार विनयाचार का स्वरूप - ___ सुपर्यकापर्यकवीरासनादिकान् बाहुन् । विधायहृदयेघृत्वाप्रतिलेख्य करद्वयम् ॥१२॥ मत्या सिद्धांतवाणि पउपन्त यत्र योगिभिः। सूत्रार्ययोगयुद्धथा स ज्ञानस्यविनयोमतः ॥६३॥ अर्थ-मुनि लोग जो पर्यकासन अर्द्धपर्यकासन बोरासन आदि में से कोई एक आसन लगा कर, हाथों को शुद्ध कर, सिद्धांत सूत्रों को ही नमस्कार कर तथा उन्हीं को हृदय में विराजमान मन-वचन-काय को शुद्धता पूर्वक जो सूत्र वा सूत्रके अर्थ को पढ़ते हैं उसको ज्ञानका विनय वा विनयाचार कहते हैं ।।६२-६३।। उपधान ज्ञानाचार का स्वरूपप्राचाम्लनिधिकृताध: पक्षानाधिरसोझनैः। विषायनियमं ग्रंथसमाप्त्यन्तं श्रतोसकः ।।६।। सिद्धाम्स पठ्यते पनागहरण स्वार्थसिसये । प्राधार उपधानाख्यः स ज्ञानस्यस्मतोमहान् ।।६।। अर्थ-शानी हत्या इसमाले पुनि भकी समाप्ति तक केवल भात मिला माड़ खाने का निर्विकृति ( विकार रहित पोष्टिक रहित ) माहार ग्रहण करने का वा पकवान रसको त्याग करने का जो नियम लेते हैं और ऐसा नियम लेकर अपनी प्रास्माका कल्याण करने के लिये प्राग्रह पूर्वक जो सिद्धांतोंका पठन-पाठन करते हैं उसको शानका उपधाम नामका प्राचार कहते हैं ॥६४-६५।। बहुमान नामक ज्ञानाचार का स्वरूपअंगपूर्षभुताशीनां सूनाय च यपास्थितम् । तथवादोच्चरन् वाण्या यो म्येषाप्रतिपादयेत् ॥६॥ कर्मक्षयाय कुर्याधसूरिश्रुतादियोगिनाम् । मविपरिभवं गढहुमान लभेत सः ।।६७।। ___अर्थ-~अंग पूर्व और अन्य शास्त्रों सूत्र अर्थ जैसा है उसीप्रकार जो वाणी से उच्चारण करते हैं उसीप्रकार दूसरों के लिये प्रतिपादन करते हैं। यह सब पठन-पाठन केवल कर्मों के क्षय के लिये करते हैं तथा अभिमान से आचार्य शास्त्र वा किसी योगी का कभी तिरस्कार नहीं करते उसको बहुमान मामका ज्ञानाचार कहते हैं ॥६६-६७।। अनिह्नवाचार का स्वरूपसामान्यारि पतिभ्योपि पठित्वा भुतमूजितम् । महषिम्योमयापीतं मानिभिनिगद्यते ॥६८।। प्रवीत्य प्रदरं गास्त्रं पार निग्रंषयोगिमाम् । कुलिगिनिकटेऽभीतमुख्यते य ममभिः ।।६।। नापीतं न रचुतं अपि नेत्यादि पूयते च यत् । पठितस्यापिशास्त्रस्य सर्व निहनं हि तत् ॥७॥ इमं मिलनदोष व त्यक्त्वाचार्यादियोगिनाम् । गुरुपाठकशास्त्रागांश्रुतस्य पठितस्य मा ७१|
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy