SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीर] ( ३६० ) [अष्ठम अधिकार वसतिका शुद्धि का स्वरूप निर्देश -- प्ररण्येनिजस्थाने शून्यगेहे गुहादिषु । निरव प्रदेश वा श्मशानेतिभयकर ।।२३४६॥ यासो यः क्रियतेपोरैनिःसंगनिर्मलाशयः । एकान्ते ध्यामसिरपंसा शुधियसतिकाह्वया ।।२३४७॥ अर्थ-जो समस्त परिग्रहों से रहित शुद्ध हृदय को धारण करनेवाले धोर चीर मुनि अपने ध्यानकी सिद्धि के लिये किसी वनमें, निर्जन स्थानमें, सूने घरमें किसी गुफा में, वा अन्य किसी एकान्त स्थान में, वा अत्यन्त भयंकर श्मशान में निवास करते हैं उसको वसतिका शुद्धि कहते हैं ॥२३४६-२३४७॥ बसतिका शुद्धि का स्वामी से मुनिराज होते हैंग्राभेकमहोरानं नगरेविमपंधकम् । वसन्ति प्रासुकायासाविविक्त कान्तवासिनः ||२३४८।। अन्वेषयन्तएकान्तं शुक्लध्यानापिताशयाः । लभन्ते त्रैवगन्धेभाध्यानानन्दसुखमहत् ।।२३४६।। महोनमानसाधीराएकाकिनो हाविसलाः । वपुरादी न कुर्वन्सोममरवं वनवासिनः ॥२३५०।। सर्वनाप्रतिवद्धापच मोमाद्रिकन्दराविषु । तिष्ठन्तिरममारणास्तेभीवीरवचनेन्वहम् ।।२३५१।। सिंहम्याघ्राविचाराधी श्मशानकन्दरादिषु । भोतिषुप्रवेशेषु नां कापुरषाल्मनाम् ॥२३५२।। सवा इससिको पीरमहापुरवसे विलाम् । महापुरसिंहाच सेवाले ध्यानसिसमे ॥२३५३।। एकान्तेविगुहादी ते वसन्तोनिशिभीषणम् । शृण्वन्तः शम्बसंघातमत्यासम्भयानकम् ।।२३५४॥ सिंहध्यानाविदुष्टानां नरसिंहाचनिर्भयाः । चलन्ति न मनारध्यानादचलाइवसंस्थिताः ।।२३५५।। अनुद्विग्नाशया वक्षा महोपरयकोटिभिः । श्रद्दधानाजिनेन्द्राज्ञां वसन्स्यनिगुहादिषु ।।२३५६।। ध्यानाध्ययनसंयुक्तामागरूका अहनिशम् । अप्रमादाजिताक्षास्ते यान्ति निद्राक्शं न च ।।२३५७।। पर्यकिरणाद्ध पर्यकरणसद्वीरासनेन च । उत्कटेन तथा हस्तिौडेन च निषधया ॥२३५८।। प्रासनर्मकरस्या:कायोत्सर्गेण चापरः । शत्रिनयन्ति ते प्रधादाधेकपाश्र्वाधिशम्यया ॥२३५६॥ उपसर्गाग्निसंयाते महापरीषहा फुले। रौप्रसस्वभृतेभीमे धमादौसुष्ट दुष्करे ॥२३६०॥ वसन्तिमोक्षमार्गस्था यासंहनना प्रहो । शुद्धि वसतिकात्यो चापन्नाः सवधामसिद्धये ॥२३६१।। इत्याद्यामसमांशुद्धो पति मे श्रयन्तिभोः। तेषां क्ससिकाशुद्धिर्भवेविरागयोगिनाम् ॥२३६२।। ___ अर्थ-प्रासुक स्थान में रहनेवाले और विविक्त एकांत स्थानमें निवास करने वाले मुनि किसी गांव में एक दिन रहते हैं और नगर में पांच दिन रहते हैं । सर्वधा एकांत स्थानको ढूढने वाले और शुक्लध्यान में अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में भी गंध गज (मयोन्मस) हाथी के समान ध्यानके आनन्व का महा सुख प्राप्त करते हैं । जिन मुनियों का हृदय विशाल है, जो घोर वीर हैं, एकषिहारी हैं, अत्यन्त निर्भय हैं, जो वनमें हो निवास करते हैं अपने शरीर आदि से कभी ममत्व नहीं करते
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy