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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३१६ । [षष्ठम अधिकार ।।२०५२-२०५३॥ विपावित्रय धर्मध्यान का लक्षणसत्पुण्यप्रकृतीनां गुडखंडशकरामतः । सभोधप्रकृतीनां च निम्बाविसवशोशुभः ॥२०५४।। दिपाको बहुधाचश्चिन्त्यले यत्रमानसे । तद्विषाकजयायोचविपाकविचयं हि तत् ।।२०५५।। अर्थ- श्रेष्ठ पुण्य प्रकृतियों का विपाक गुड़, खांड, मिश्री और अमृतके समान उत्तरोत्तर शुभ होता है तथा पाप प्रकृतियों का विपाक नीम, विष, हलाहल आदि के समान अत्यंत अशुभ होता है । इसप्रकार चतुर पुरुष कमों के विपाक को जीतने के लिये बार-बार चितवन करते हैं उसको विपाकविषय नामका धर्मध्यान कहते हैं । ।।२०५४-२०५५॥ __ विरागविचय धर्मध्यान का लक्षणसप्तधातुमयाबिंद्यात कायाद मेव्यमग्विरात । अतृप्तजनकावभ्रकारणाद्भोगसंचयात् ॥५६।। अनन्तदुःखसम्पूर्णाहसंसाराच्चसुखच्युतात् । विरक्ति या सता विते विरागविनयं हि सत् ।।५७।। अर्थ- यह शरीर सप्त धातुओं से भरा हुआ है, अत्यंत निथ है और भिष्टा का घर है तथा ये भोगों के समूह नरक के कारण हैं और इनसे कभी तृप्ति नहीं होती और यह संसार भी अनंत दुःखों से भरा हुआ है और सुखसे सर्वथा दूर है, इसप्रकार चितवन करते हुए सज्जनों के हृदय में जो संसार शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न होता है उसको विरागविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥२०५६-२०५७।। भवविनय धर्मध्यान का लक्षणअनन्तदुःखसंकीर्णे भवेनावोमुखातिगे । सचित्तापिसमिधादिनानायोनिषुकर्मभिः ।।२०५८॥ भ्रमन्ति प्रारिंगनोश्रान्तकमपाशावता इति । भवभ्रमणदुःखानुचिन्तनध्यामसप्तमम् ।।२०५६॥ अर्थ-यह संसार अनादि है सुखसे सर्वथा रहित है और अनंत दुःखों से भरा हुधा है ऐसे इस संसार में कर्मों के जाल में फंसे हुए ये प्राणी अपने-अपमे कर्मों के उदय से सचित अचित्त मिश्र आदि अनेक प्रकार की योनियों में निरंतर परिभ्रमण करते रहते हैं । इसप्रकार संसार के परिभ्रमण के दुःखों का बार-बार चितवन करना भवविचय नामका धर्मध्यान है ॥२०५८-२०५६।। संस्थानविनय धर्मध्यान का लक्षणअमित्याचा अनुप्रेक्षा द्वादसामन्त शर्मवाः । वैराग्यमातरो रागनाशिन्योमुक्तिमातृकाः ॥२०६०।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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