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________________ : मूलाचार प्रदीप ( १९६ ) [ चतुर्थ अधिकार कुड्य दोष का स्वरूपकुडघमाश्रित्य तिष्ठेद्यो व्युत्सर्गरमाथवापरम् । कुडयदोषो भवेत्तस्य कायोत्सर्गमलप्रदः ॥१६॥ अर्थ-जो मुनि किसी बीवाल के सहारे खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है उसके कायोत्सर्ग को दूषित करनेवाला कुड्य नामका दोष लगता है ॥१६॥ __ माल दोष का स्वरूपपीठिकादिकमारुह्य वोर्वभागंस्षमस्तकाल ! अाश्रित्य यस्तनसग कुर्यात्स मालदोषवान् ॥२०॥ अर्थ-जो मुनि किसी पीठिका पर (वेदी आदि पर) चढ़ कर और उसके ऊपर के भाग पर मस्तक का सहारा लेकर कायोत्सर्ग करता है उसके माल नामका दोष प्रगट होता है ॥२०॥ वर-वधू दोष का स्वरूपजंघान्यांजघनंपोडय सवरादिवरिव 1 यस्सं पत्तेऽत्र स स्यात्सबरवध्यारव्यहोपभाक् ।।२१।। अर्थ-जो मुनि वर-वधु के समान दोनों जंघाओं से जंघाको दबाकर कायोत्सर्ग करता है उसके वरवधू नामका दोष लगता है ।।२१।। निगल दोष का स्वरूप-- हरवा बह्वन्तरालं यः पादयोनिगलस्थवत् । कायोत्सर्ग विषत्ते स निगलास्यंमलंश्रयेत् ।।२२॥ अर्थ-जिसके पैर सांकल से बंधे हैं, पैरों के बीच में बेड़ी वा लोहे के डंडे पड़े हैं उसके समान जो अपने पैरों को बहुत दूर-दूर रखकर कायोत्सर्ग करता है उसके निगल नामका दोष लगता है ॥२२॥ लंबोदर दोष का स्वरूपव्युत्सर्गथास्ययस्यात्रोन्नमनंचभन्मुमे: वह्वषोनमनं तस्य दोषोलम्बोत्तरातयः ।।२३।। अर्थ-कायोत्सर्ग करते समय जो मुनि ऊंचेको अधिक तन जाय अथवा नीचे को नब जाय उसके लंबोत्तर नामका दोष लगता है ।।२३॥ स्तन दृष्टि दोष का स्वरूपध्युत्सर्गस्थोत्र यः पश्येत्स्वस्तनौ चंचलोवृशा । तस्य दोषः प्रजायेत स्तनवृष्ठिसमालमत् ॥२४॥ अर्थ-जो चंचल मुनि कायोत्सर्ग करते समय नेत्रों से अपने स्तनों को देखता है उसके स्तनदृष्टि नामका दोष लगता है ॥२४॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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