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________________ मूलाचार प्रदीप] ( १९५) [.चत्तुथं अधिकार आदि बड़ी-बड़ी समस्त ऋद्धियां प्राप्त हो जाती हैं तथा लोक अलोक सबको दिखलाने वाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है ॥१०-११॥ कायोत्सर्ग के वत्तीम दोषों के नामधोटकोऽथलतास्यस्तंभकुनौमालसंज्ञः । दोषः स घरवघ्याख्यस्ततो निगलनामकः ।।१२।। लम्बोत्तराभिधोदोषस्तनबुष्टिश्चषायसः । खलिनो युगकपित्थो शिरः प्रकषितात्यकः ॥१३॥ मूक्तिोगुलिदोषोयभ्र विकारसमाह्वयः। बोवश्ववारणीपायी दिग्दशालाकनादिशः ।।१४।। प्रोवोत्रमनदोषोय पोषःप्रणमनाल्यकः । निष्ठीवनोगमाख्योऽथाभीषां लक्षणं वे ॥१५।। अर्थ- कायोत्सर्ग के बत्तीस दोषों के नाम कहते हैं । घोटक, लता, स्तंभ, कुड्य, माल, वरवध, निगल, लम्बोत्तर, स्तनदृष्टि, वायस खलीन, युग, कपित्थ, शिर प्रकंपित, मूकित, अंगुलि, भ्र विकार, वारुणीपायी, दिग्दशालोकन ग्रीवोन्नमन प्रणमन, निष्ठीवन अंगमर्श ये कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष हैं आगे अनुक्रम से इनका लक्षण कहते हैं ॥१२-१५॥ घोटक दोष का स्वरूपयः स्वकं पादमुरिक्षप्यविन्यस्थ वात्र तिष्ठिति । प्रवद्धिप्त नत्सर्गे सः स्याद्घोटकोषभाक् ॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करते समय घोड़े के समान एक पैर को उठाकर अथवा एक पैर को रख कर कायोत्सर्ग करता है उसके घोटक नाम का दोष लगता लता दोष का स्वरूपलतेवात्रनिजांगानि चालयन् यः प्रतिष्ठते । कायोत्सर्गरण तस्य स्याल्लतादोषश्चलारमनः॥१७॥ अर्थ-जो मुनि लता के समान अपने शरीर को वा अंग उपांगों को हिलाता हुआ कायोत्सर्ग करता है उस चंचल मुनि के लता नाम का दोष लगता है । ॥१७॥ स्तंभ दोष का स्वरूपस्तंभमाश्रित्य यस्तिष्ठत् कायोत्सर्गस संघप्तः । वा अन्यहृदयस्तस्य स्तंभयोषोत्र जायते ।।१।। अर्थ-जो मुनि किसी खंभेके आश्रय खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है अथवा खंभे के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करता है उसके स्तंभ नामका वोष लगता है ॥१८॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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