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________________ मूलाचार प्रदीप ] { २७६ ) [ षष्टम अधिकार विपत्तेः प्रतिपाल्याम्वाः पोषयन्ति पथारमजान् । तर्थतांश्च यतीम् सर्वहितः स्वमुक्तिशर्मभिः ।। यांगजान अमन्यो न वध र्गन्तुकुविक्रियाम् । समावमिमा जनता पाजमार समिः । शिवं कुर्वन्ति सूनोश्चयद्ववम्वाः निवार्य भोः । दुःखक्लेशादिकांस्तद्ववेताः साधोः प्रपालिताः ।। इस्यबागुणसंयोगात्साल्यिा वरमातरः । उम्यन्ते श्रीजिनाधीशः मातृतुल्पामहात्मनाम् ॥६७॥ ____ अर्थ-जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों को धलि मिट्टीसे बचाती हैं उसीप्रकार ये अष्ट प्रवचनमातृकाएं मुनियों को कालव रूपी पुलि से बचाती हैं । जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों को विपत्ति से बचाकर पालन पोषण करती हैं उसीप्रकार ये प्रष्ट प्रवचनमातृकाएं मुनियों को सब तरह का हित कर तथा स्वर्ग मोक्ष के सुख देकर मुनियोंका पालन पोषण करती हैं। जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रोंको किसी भी आपत्ति में जाने नहीं देती उसी प्रकार ये अष्ट प्रवचनमातृकाएं भी अपने मुनिपुत्रों को रागद्वषाविक समस्त शत्रुओं से रक्षा करती हैं। जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों के समस्त दुःख और क्लेशों को दूर कर उनका कल्याण करती हैं उसीप्रकार ये गुप्तिसमिति रूप माताएं भी साधुनों की रक्षा करती हैं दुःख वेनेवाले रागद्वष वा कर्मों को उत्पन्न नहीं होने देती । इसप्रकार इन गुप्ति समितियों में माताके समस्त गुण विद्यमान हैं इसीलिए भगवान जिनेन्द्रदेव ने प्रष्ट प्रवचनमातृकाएं ऐसा इनका सार्थक नाम बतलाया है। वास्तव में महात्मानों के लिए ये माता के हो समान हैं ॥१७६३-६७॥ चारित्र के भेदएषवताबिसम्पूर्णरचारित्राचार जितः । त्रयोववियोवविधातव्योतिनिमलः ॥१७६८।। अर्थ-इसप्रकार पांच महायत, पांच समिति और तीन गुप्तियों से परिपूर्ण हुआ चारित्राचार तेरह प्रकार का है इसीलिए चतुर मुनियों को अत्यंत निर्मल और अत्यंत उत्कृष्ट ऐसा यह चारित्राचार अवश्य धारण करना चाहिए ।।१७६८॥ निर्मल चारित्र पालने का फलसर्वातिधारभिमुचारित्रं शसिनिर्मलम् । ये घरम्ति प्रयत्नेन तेषांमोको न्यदेहिनाम् ।।६॥ माये ये मुनयोरक्षाश्चारित्राचार भूषिताः । त्रिजगन्धर्म भक्त्वा ते कमाधान्तिशिवालयम् ।।७।। अर्थ-जो पुरुष समस्त अतिचारों से रहित और चन्द्रमा के समान निर्मल ऐसे इस चारित्रको प्रयत्न पूर्वक धारण करते हैं उन चरमशरोरियों को अवश्य ही मोक्ष को प्राप्ति होती है । और भी जो चतुर मुनि इस चारित्वाचार से सुशोभित होते हैं ये तीनों लोकोंक सुखोंको भोगकर अनुक्रम से मोक्ष में जा विराजमान होते हैं ॥६९-७०॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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