________________
मूलाचार प्रदीप ]
( ४६३)
[ द्वादश भधिकार ऋद्धियां तप चारित्र और धर्म के माहात्म्य को प्रगट करनेवाली हैं ।।३२२३-३२२४॥
रस ऋद्धि के भेदपरा प्रात्यविषावृष्टिविषामहर्षयोद्भसा: । सन्क्षीसरामाविरगोमध्वाधामिण निगमाः ३२२५! सपिराधाविश्वामताथाविण अजिसाः । एवरसद्धिसंप्राप्ताः षड्विधाऋषयोमताः ॥३२२६॥
___ अर्थ--रसद्धि के छह मेद हैं-प्रास्यविषा, दृष्टिविषा, क्षीरस्रावी, मधुस्रावो, सपिस्रावी और अमृतस्त्रावो । इनसे सुशोभित होनेवाले मुनि रसऋद्धिधारी कहलाते हैं ॥३२२५-३२२६।।
क्षेत्र ऋद्धि के भेदद्विधान द्धिसंप्राप्ताः इत्यक्षीणमहानसाः । जनावगम्हवा:स्वस्याश्रमेक्षीरगमहालयाः ॥३२२७।।
अर्थ-क्षेत्र ऋद्धि के दो भेद है-एक अक्षीण महानस और आश्रम में समस्त लोगों को जगह वेनेवाली प्रक्षीण महालय इनसे सुशोभित होनेवाले मुनि क्षेत्रऋद्धिधारी कहलाते हैं ॥३२२७॥
ऋद्धियों की महिमाहमा अष्टविधाः साराः ऋद्धयोषिविधास्तथा । तपोमाहात्म्यजा ज्ञेया ऋषीरणशिवशर्मवाः ॥२८॥
अर्थ-इसप्रकार ये पाठ प्रकार की ऋद्धियां कहलाती हैं इन सारभूत ऋद्धियों के अनेक भेव हैं तथा ऋषियों के तपश्चरण के माहात्म्प से प्रगट होती हैं और उन्हें मोक्ष देनेवाली होती हैं ॥३२२८॥
किनके ये ऋद्धियां प्रकट होती हैंनिराकांक्षास्त्रिशुरुपायेऽनघंकुर्वन्तिसत्तमः । श्यपः सकलास्तेषां जायन्ते स्वयमेव हि ॥३२२६।।
अर्थ-जो मुनि मन-वचन-फाय की शुद्धता पूर्वक बिना किसी प्राकांक्षा के पापरहित श्रेष्ठ तपश्चरण करते हैं उनके अपने आप समस्त ऋद्धियां प्रगट हो जाती हैं ॥३२२६॥
तप नहीं करने से हानिजिनदीमामुगावाय तपोयेत्र म कुर्वते । सेवा रोगबजोमुत्रदुर्गतिमित्पभक्षणात् ।।३२३०॥
अर्थ-जो मुनि अपनी इच्छानुसार दीक्षा धारण करके भी तपश्चरण नहीं करते उनके अनेक रोग प्रगट होते हैं और नित्य भक्षण करने से परलोक में दुर्गति