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________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि मुनियों को बिना धर्मध्यान के अत्यंत दुर्लभ ऐसी काल को एक घड़ी भी नहीं बितानी चाहिये ॥५६४॥ विकथाओं के कहने से निरन्तर पापों का संचययतो येनपराहारं गृहीत्वा कुर्वते शशाः । चतुर्था विकों सेां वृथा दीक्षाघसंचयात् ।।५६५।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो अज्ञानी मुनि दूसरे का प्राहार ग्रहण करके भी चारों प्रकार की विकथा में लगे रहते हैं उनकी दीक्षा भी व्यर्थ है, क्योंकि विकथाओं के कहने से उनके निरंतर पापों का संचय होता रहता है ॥५६॥ रत्नत्रय के बिना केवल भार वहनवा ते प्रमादिनो नूनं पराहारादि भमरणात् । विना रत्नत्रयं वीना भवन्ति भार वाहकाः ।।५६६॥ ___ अर्थ– अथवा यों कहना चाहिये कि वूसरों का आहार खा-खाकर वे प्रमावी बन गए हैं और रत्नत्रयके बिना वे दीन केवल भार वहन करनेवाले वा बोझा ढोने वाले हैं ॥५६६।। प्रमाद कभी नहीं करना चाहियेइति मत्वा न कर्तव्यः प्रमावो विकथादिजः । किंतु स्वमुक्ति संसिध्यै स्थातव्यं मोक्षकामिभिः ।। अर्थ- यही समझ कर विकथादिकों से उत्पन्न हुआ प्रमाद मुनियों को कभी नहीं करना चाहिये किंतु मोक्षको इच्छा करनेवाले उन मुनियों को स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धि के लिये प्रयत्न करते रहना चाहिये ॥५६॥ भोजन णुद्धि सब धर्मोंकी खानि हैइत्येषाशन शुद्धिश्चानुष्ठेया यामतोम्यहम् । विश्वधर्मतनी सारा वृत्तमूला गुणाकरा ॥५६॥ अर्थ- इसप्रकार कही हुई यह भोजन शुद्धि मुनियों को प्रयत्न पूर्वक प्रतिदिन करनी चाहिये । क्योंकि यह भोजन शुद्धि समस्त धोकी खानि है, सारमूत है, चारित्र को जड़ है और गुणोंकी खानि है ॥५६८।। अध:कर्मजन्य साहार को ग्रहण करने का फलयतो बहूपयासारच योगा मातपनादयः । प्रषः कर्म भुजा व्यर्थाःस्युः षडंगि विघातनात् ॥५६॥ अर्थ-जो मुनि अध.कर्म जन्य आहारको ग्रहण करते हैं उनके छहों प्रकारके
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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