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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २११ ) [चतुर्थ अधिकार अर्थ-यह शरीर सप्त धातुओं से भरा हुआ है और समस्त प्रशुद्ध पदार्थोंका घर है । ऐसे इस शरीर की शुद्धि जो जल से मानते हैं उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये किंतु उन्हें पशु समझना चाहिये ॥११॥ बुद्धिमानों को प्रात्मणुद्धि के लिये प्रस्नान बत स्वीकार करना चाहियेइत्यस्नानपुरणान ज्ञात्वादोषान स्नानभवान् बहून् । श्रमध्यं धोधनाः शुरु ह्यस्नानवतभूजितम् ।। अर्थ- इसाकार अम्नान साले अनेक गुणों को सरकार और स्नानसे उत्पन्न होनेवाले बहुत से दोषों को समझकर बुद्धिमान लोगों को अपने आत्मा को शुद्ध करने के लिये सर्वोत्कृष्ट अस्नान व्रतको ही स्वीकार करना चाहिये ॥१२॥ प्रस्नान कतकी महिमारहितनिखिलदोषरागनि शहेतु मसमगुणसमुत्रं लोक नायकपूष्यम् । जगतिपरपवित्रं शुद्धिदं पापहान्य भजतविगतसंगाः नित्यमस्नानसारम् ।।१३।। अर्थ- यह प्रस्नान व्रत समस्त दोषों से रहित हैं, राग को नाश करने का कारण है, सर्वोत्कृष्ट गुणोंका समुद्र है, तीनों लोकों के स्वामी तीर्थकर भी इसको पूज्य समझते हैं, यह संसार भरमें पवित्र है और आत्मा को शुद्ध करनेवाला है। इसलिये परिग्रह रहित मुनियों को अपने पाप नष्ट करने के लिये इस अस्नान वतको नित्य ही पालन करना चाहिये ।।१३।। भूमि शयन नामक मूलगुण का स्वरूपसंरतरे निर्जनेतिर्यस्थी पलीयाविविजिते । अल्पसंसरितेपासुकभूम्यादिक गोचरे ॥१४।। एकपावधनुदंडाविशम्याभिविषीयते । शयनं पच्छमोस्थित्यं धराशयनमेषतत् ।।१५।। अर्थ-मुनिराज अपना परिश्रम दूर करने के लिये लियंध स्त्री नपुंसक प्रादि रहित निर्जन एकांत स्थान में किसी थोड़ी सी बिछी हुई घास आदि पर अथवा प्रासुक भूमि पाषाण तखता मावि पर किसी एक कर्वट से अथवा धनुषके समान पैर समेट कर वा डेप्टेके समान शयन करते हैं उसको भूमिशयन नामका मूलगुण कहते हैं ॥१४-१५॥ भूमि शयन करने में गुण और कोमल शव्यापर सोने से उत्पन्न दोषव्रतेनानेन जायन्ते दुढं तुर्यमहावतम् । निवाअयश्च रागाविहानिः संवेगऊजिसः ॥१६॥ मदुशम्यादिना निद्रा व ते पापकारिणी । तया ब्रह्मविनाशश्च स्वप्ने शुक्रव्युते नंणाम् ॥१७॥ एषः सर्वप्रमावामा मिवाप्रमाद अजितः। विश्वपापकरीमूतोऽनेका नदिसागरः ॥१८॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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