SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ( १०२ ) [ तृतीय अधिकार मिथ्या काव्यों के सुनने से वृद्धि विपरीत हो जाती है-- कुकाव्यश्रवणेनाधमघान्सति विपर्ययः । तेन पातो दगादिभ्यस्ततोऽशर्मासता महत् ॥६३१।। अर्थ-मिथ्या काव्यों के सुनने से पाप होता हैं, पाप से बुद्धि विपरीत हो जाती है, बुद्धि के विपरीत होने से सम्यग्दर्शन छुट जाता है और सम्यग्दर्शनके छट जाने से उन दुष्टों को महा दुःख उत्पन्न होता है ।।६३१॥ जो मुनि रागद्वेष वर्धक शब्दों को नहीं सुनते हैं उनके कर्मबंध नहीं होता--- इत्यादीन् परान् शब्दान् ये अण्वन्ति न योगिनः । चरन्तस्तेन वध्यन्ते पापंर्जातु महीतले ॥६३२॥ अर्थ--इसप्रकार जो मुनि मर्वत्र विहार करते लए भी दूसरे के शब्दोंको नहीं सुनते हैं थे इस संसार में कभी पापों से नही बंधते हैं ॥६३२।। (मिथ्या) रागद्वेषण उत्पन्न करनेवाले वचनों के सुनने से वचमात्तीत महादुःख होता हैमाग्दान रागादि हेतुस्तान ये श्रृण्वन्स्यत्र रागिणः। रागषौ पर्शतेषां प्रजायेतेऽन्वहं तराम् ।। ताभ्यां स्पुर्तुष्टसंकल्पास्तस्यात्पापं दुरुत्तरम् । पापेन संस्तो दुःखं से लभन्ते वचोलिंगम् ॥६३४।। अर्थ-जो रागी पुरुष इस संसार में रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले शब्द सुनते हैं उनके रात दिन रागद्वेष उत्पन्न होता रहता है । तथा रागद्वेष उत्पन्न होने से दुष्ट संकल्प उत्पन्न होते हैं, उन दृष्ट संकल्पों से अत्यंत घोर पाप उत्पन्न होता है और पापों से इस संसार में वचनातीत महा दुःख प्राप्त होते हैं ॥६३३-६३४॥ अपने पाप शांत करने के लिये श्रोत्र इन्द्रिय का निरोध प्रावश्यक हैविज्ञायेस्येनसा शास्य सर्वयत्नेन धीषनाः । श्रोत्ररोध प्रकुर्वन्सु त्यक्त्वा चापल्य मंजसा ।। ६३५|| अर्थ-यही समझ कर बुद्धिमान पुरुषों को अपने पाप शांत करने के लिये अपनी चंचलता छोड़कर पूर्ण प्रयत्न के साथ शीघ्र ही भोत्र इंद्रिय का निरोध करना चाहिये ॥६३५॥ समस्त सुखों का निधान एवं समस्त सिद्धांत का कारण श्रोत्रन्द्रिय का निरोधविविधसकलशब्दान रागहेतून् विमुच्य जिनवरमुखबातान् धर्मशान महोत्वा । निखिलसुखनिधानं सर्वसिद्धांतहेतु कुरुत परमयरनामष्ठावरोध यतीन्द्राः ।।६३६॥ अर्थ-मुनिराजों को रागद्वेष को उत्पन्न करनेवाले अनेक प्रकार के शब्दों के सुनने का त्याग कर देना चाहिये और भगवान जिनेन्द्र देवके मुख से प्रगट हुये धर्म रूप
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy