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________________ मूलाचार प्रदीप ] { १०१) [ तृतीय अधिकार राग सहित गीतादि के श्रवण का निषेधसरागगीतगानाद्या रागकामाग्निदीपिका: । वोरणामवंगवाथाश्च न योतव्या जितेन्द्रियः ।।६२५।। अर्थ-राग पूर्वक होनेवाले गीत गान वा वीणा मृदंग आदि बाजे राग और कामरूपी अग्नि को बढ़ाने वाले हैं। इसलिये जितेन्द्रिय पुरुषों को कभी नहीं सुनने चाहिये ।।६२५॥ राग वर्धक शास्त्रों के श्रवण का निषेधश्रृंगार युद्ध हास्यावि पोषकाणि हनेकशः । कलि कौतूहलोत्पाद कानि शास्त्राणि ज्ञातुचित् ॥ मिथ्यामसाधण्यानि महापापा कराणि च । पूर्तः प्रज्वलितान्यत्र न श्रूयन्ते वित्तः ॥६२७॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि पुरुष शृगार युद्ध हास्य प्रादि को पुष्ट करनेवाले तथा कलियुग का कौतूहल बढ़ाने वाले (परस्पर युद्ध कराने वाले) अनेक प्रकारके शास्त्रों को कभी नहीं सुनते हैं । जो शास्त्र मिथ्यामत रूपी पाप से भरे हुये हैं जो महा पाप उत्पन्न करनेवाले हैं और धूर्तों के द्वारा बनाये गये हैं ऐसे शास्त्र भी कभी नहीं सुनते हैं॥६२६-६२७।। विकथानों को सुनने का त्यागअसत्याः कुकथा मिथ्यामागंजा विकथादयः । वृथास्तवान्यनिदाद्या न श्रोतव्याः वर्षः क्वचित् ॥ ___अर्थ- बुद्धिमान पुरुषों को प्रसत्य कुकथाएं, मिथ्यामतों को विकथाएं, व्यर्थ की स्तुति और दूसरों की निंदा कभी महीं सुननी चाहिये ।।६२८।। कुकाव्य के धवण का निषेध - कुकाध्यं दुर्गतोपेतं न श्रोतव्यमघाकरम् । मुक्त्वा जिनोजितं काव्यं वक्षः प्रजादिवृद्धपे ॥६२६।। अर्थ-इसी प्रकार मिथ्यामत से भरा हुआ और पाप उत्पन्न करनेवाला वा कुकान्य कभी नहीं सुनना चाहिये । बुद्धिमानों को अपनी बुद्धि बढ़ाने के लिये भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए काव्य ही पढ़ने चाहिये अन्य नहीं ॥६२६।। अच्छे काव्यों के पढ़ने से बुद्धि श्रेष्ठ होती हैयतो जिनेन्द्रकाव्येरणानधो धर्मोषसंवरः । ताभ्यां स्याच्च महाप्रज्ञा सतां विश्वाशिनी ।।६३०॥ अर्थ-क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए काव्य के पढ़ने से पाप रहित निर्मल धर्मकी वृद्धि होती है और पापों का संवर होता है । तथा धर्म और संवर से सज्जन पुरुषोंके समस्त पदार्थों को दिखलाने वाली श्रेष्ठ बुद्धि उत्पन्न होती है ।।६३०॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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