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________________ मुनानार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार अर्थ-यदि कसा हो और कितना हो श्रेष्ठ कार्य प्रा जाय; तथापि सूर्य अस्त होनेपर, अथवा सूर्य उदय होने के पहले कभी गमन नहीं करना चाहिये ।।२७०।। मुनिराज रात्रि में गमन क्यों नहीं करते ? यतो रात्री नियन्ते, व्रजननादृष्टिगोचरे । पंचाक्षा बहवस्तस्मानश्येदा महानतम् ॥२१॥ अर्थ-क्योंकि रात्रि में गमन करने से, दृष्टि के अगोचर, ऐसे अनेक पंचेंद्रिय जीव मर जाते हैं। जिससे अहिंसा महानत सर्वथा नष्ट हो जाता है ।।२७१।। महावत के नाश होने से दुर्गलि गमनप्रतनाशेन जायते, महत्पापं प्रमादिनाम् । पापा घोरतरं दुःखं, बुर्गतौ च न संशयः ॥२७२।। अर्थ-अहिंसा महानत के नाश होने से प्रभावी पुरुषों को महा पाप उत्पन्न होता है और पापसे अनेक दुर्गतियों में अत्यन्त घोर दुःख प्राप्त होता है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।२७२।। चतुर्मास में गगन का निषेध क्यों ? महीं सत्वाफुलेजाते, चातुर्मासे सुसंयतः । पापभीतर्न गंतव्यं, प्रयोजनशतः क्वचित् ॥२७३।। अर्थ-तुर्मास में जब पृथ्वी अनेक जीषों से भर जाती है लब पापोंसे डरने वाले मुनियों को सैकड़ों आवश्यक कार्य होने पर भी कहीं गमन नहीं करना चाहिये। ॥२७३३ प्रेषणं नानदातव्यं, सति कार्य प्रतात्मनाम् । गमने प्रेरणं वाहो, बुध वक्षयंकरम् ॥२७४ । अर्थ-विद्वानों को चतुर्मास में आवश्यक कार्य होने पर भी किसी व्रती को बाहर नहीं भेजना चाहिये ; क्योंकि जाने के लिये प्रेरणा करना, अनेक जीवों का घात करने वाला है ॥२७४।। विषयानुमतिति, गमनादी ने पायदा । प्रयोजनक्शात्पुसा, मुनिभिर्यस्नधारिभिः ।।२७॥ प्रर्ष-यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले मुनियों को किसी प्रयोजन के निमित्त से भी गमनागमन कार्यों में पाप देने वाली सम्मति कभी नहीं देनी चाहिये । ॥२७॥ प्रागच्छ, गच्छ, तिष्ठेह, कुरु कार्य च भोजनम् । इति मातु न वक्तव्यं, पतिभिः पापकारणम् ।। अर्थ-यहां श्रा, यहां जा, यहां बैठ, इस कार्य को कर, या भोजन कर, इस
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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