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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १५५) [तृतीय अधिकार विद्या देते हैं, जो गुरु क्रियाहीन हैं, जो जो पाखंडी है, रागो हैं, व्रतहीन हैं, जो जो संसार में परिभ्रमण करनेवाले कुदेष हैं वे सब सज्जनों को वंदना करने के अयोग्य हैं तथा कृतिकर्म करने के अयोग्य हैं। उन्हें न वंदना करनी चाहिये और न उनके लिये कृतिकर्म करना चाहिये ॥६५१-६५३॥ पार्श्वस्थ के भेद तथा उनकी अवंद्यतापार्षस्थाश्व कुशीला हि संसक्ता येषधारिणः । तमापगतसंशाश्च मगचारित्रनामकाः ||६५४|| एते पंचवपाश्स्था न बंधाः संयतः क्वचित् । अमीषा लक्षणं किंनियामारंब वेऽत्र च ६५५|| अर्थ-जो मुनि पार्श्वस्थ हैं, कुशील हैं, वेषधारी संसक्त हैं, अपगत संज्ञक हैं और मगचारित्री हैं ये सब पार्श्वस्थ कहलाते हैं । मुनियों को ऐसे पावस्थों को वंदना कभी नहीं करनी चाहिये । प्रागे मैं संक्षेप से इन पार्श्वस्थों का थोड़ा सा लक्षण और निध आचरण कहता हूं ।।६५४-६५५।। का लक्षणवसनिप्रतिबद्धा घे बहुमोहाः कुमार्गगाः । संगोपकररणाकोनांकारकाः शुद्धिवरगाः ||६५६॥ दूरस्थाः संयतेभ्यो दुष्टाऽसंयतादि सेविनः । अजिताक्षकषायाश्च द्रलिंगधरा भुषि ६५७|| गुणेभ्योपविदाविभ्मः पार्थे तिष्ठन्तियोगिनाम् । ते पावस्था जिनः प्रोक्ताः स्तुतिनुत्यादि जिताः ।।६५८|| अर्थ-जो सदा वसतिकामें निवास करते हैं, जो अत्यन्त मोही हैं कुमार्गगामी हैं, परिग्रह और उपकरण आदि को उत्पन्न करनेवाले हैं, जो शुद्धता से दूर रहते हैं, संयमियोंसे दूर रहते हैं. दुष्ट असंयमियों की सेवा करते हैं जो न तो इंद्रियों को जोतते हैं और न कषायों को जीतते हैं जो संसार में केवल द्रष्य लिंगको धारण करते हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान आधि गुणों के लिये मुनियों के पास रहते हैं उनको भगवान जिनेन्द्रदेव पार्श्वस्थ मुनि कहते हैं ऐसे मुनि स्तुति वा नमस्कार प्रावि सबसे रहित होते हैं ।।९५६-६५८॥ कुशील मुनि का स्वरूपशीलं च कुत्सितं येषां नियमाचरणं सताम् । स्वभावो पा कुशीलास्ते क्रोधादिप्रस्तमानसाः ॥ ____ अर्थ-जिनका शील भी कुत्सित है, जिनके आचरण भी निथ हैं, जिनका स्वभाव भी निच है और जिनका मन क्रोधारिक से भरा हुआ है उनको कुशील कहते
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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