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________________ .. ( १५४ ) आचार्यों का लक्षण - पंचाचारपरा वक्षाः षद्भूिषिताः । विश्वोपकारचातुर्या प्राचार्याः सर्वबंधिताः ॥ ६४७॥ प्रर्थं जो पांचों आचारों के पालन करने में अत्यन्त चतुर हैं, जो छत्तीस गुणों से सुशोभित हैं, जो समस्त जीवों का उपकार करने में चतुर है और सब मुनि जिनको नमस्कार करते हैं उनको प्राचार्य कहते हैं ।।६४७।। मुलाचार प्रदीप ] [ तृतीय अधिकार उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप महाभूषा पूर्वान्पिारगाः । उपाध्याया महान्तो ये श्रुतपाठनतत्पराः ||६४८ ॥ अर्थ - जो रत्नत्रय से प्रत्यंत सुशोभित हैं, जो अंग पूर्वरूपी महासागरके पारगामी हैं, और जो शास्त्रों के पठन-पाठनमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे महा साधुओं को उपाध्याय कहते हैं ॥६४८ ॥ प्र तथा स्थविर का लक्ष- प्रवर्तकाः स्वसंघानां योगक्षेमविधायितः । मर्याववेशका ये च स्थविराश्चिरदीक्षिताः ॥४६॥ अर्थ --जो अपने संघ में योग क्षेम करनेवाले हैं उनको प्रवर्तक कहते हैं तथा जो एक देश मर्यादाको पालन करने बतलानेवाले चिरकालके दीक्षित हैं उनको स्थविर कहते हैं ||४|| वारों प्रकार के मुनि जगत्वंद्य होते हैं- चत्वारस्ते जग द्या योग्या भवन्ति सूतले । विनयस्य मुनीनां च सर्वेषां कृतिकर्मणाम् ||६५०|| अर्थ - ये जगतबंध चारों प्रकार के मुनि इस संसार में अन्य मुनियों की विनय के और समस्त मुनियों के कृतिकमं के योग्य होते हैं ॥५०॥ कौन वंद्य नहीं है तथा किनके लिए कृतिकर्म अनावश्यक हैtecarररणा मंद संवेगा द्रव्यलगिनः । द्विधासंगातसंसक्ताः शठाः पंडितमानिनः । ५१ ।। नरेन्द्र मातृ पित्रार्थ दीक्षा विद्याविदापिनः । गुरवश्च क्रियाहीनाः सर्वे पर डिलिगिनः ॥५२॥ रागिरणी विरताविषये कुदेवा भववर्तिनः । एते सत्तामगंधा यतोऽयोग्याः कृतिकर्मणाम् ।।६५३ || अर्थ - जिनका प्राचरण अत्यन्त शिथिल है, जिनका संवेग मंद है, जो द्रव्य लिंगो हैं, बाह्याभ्यंतर परिग्रह धारण करने के कारण जो धातंध्यानमें लीन रहते हैं, जो मूर्ख हैं, अपने को पण्डित मानते हैं, जो राजा था माता-पिताके कहने से दीक्षा वा
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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