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________________ * मूलाचार प्रदीप] ( १५३ ) [ तृतीय अधिकार प्राचार्य का सर्वोत्कृष्ट पद ग्रहण का विधानश्रीसिद्धाचार्य भक्ति विधायाचार्यपक्महत् । गृहीत्वासंधसानिध्ये शांतिभक्ति करोतु च ॥६४१॥ ___अर्थ-ऐसे शिष्य को सिखभक्ति और प्राचार्यभक्ति पढ़ कर आचार्य का सर्वोस्कृष्ट पद ग्रहण करना चाहिये और फिर संघ के समीप बैठकर शांतिभक्ति करनी चाहिये ।।६४१॥ ये सब क्रियायें प्रसन्नचित्त होकर करनी चाहियेइमा उक्ताः क्रियाः कार्याः सकलायोगिभिमुदा। श्रावकाच यथायोग्यं जघन्यमध्यमोत्तमः ।। अर्थ-ये सब ऊपर लिखी हुई क्रियाएं मुनियों को प्रसन्नचित्त होकर करनी चाहिये तथा जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट श्रावकों को यथा योग्य रीति से ये क्रियाएं करनी चाहिये !!४२।। प्राचार्य यादि अंर मुनियों के लिये कृतिकर्म करना चाहियेक्षमाविलक्षणयुक्तारत्नत्रयविभूषिताः । निममानिरहंकारा अनालस्या जितेन्द्रियाः ॥४३॥ वीक्षया लघवो रक्षा विरागा निथिनः । धर्मशीला: सुसवेगा विचार चतुराभुवि ॥१४४।। इत्याविगुणासम्पना मुनयों ये शिवाप्तये। प्राचार्याधि वरिष्ठानां कुवैतु कृतिकर्म ते ॥६४५।। अर्थ- जो मुनि उत्तम क्षमा प्राधि श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित हैं, रत्नवय से विभूषित हैं, मोह रहित हैं अहंकार रहित हैं नालस्य रहित हैं जितेन्द्रिय हैं, दोक्षा की अपेक्षा लघु वा छोटे हैं, चतुर हैं वीतराग हैं, कर्मों को निर्जरा करनेवाले हैं धर्मात्मा हैं, संसार से भयभीत हैं, और विचार करने में पतुर हैं । इसप्रकार अनेक गुरणों से सुशोभित जो मुनि हैं उनको मोक्ष प्राप्त करने के लिये आचार्य आदि अपने से श्रेष्ठ मुनियों के लिये कृतिकर्म करना चाहिये ॥९४३-६४५।। अरहूंत सिद्धका सत्कृति कर्म करना चाहिएपंचकल्याणपूजार्हा महल स्त्रिगन्नुताः । सिद्धाः कांगमुक्ताश्च योग्याः सस्कृतिकर्मणाम् ।। अर्थ-जो पांचों कल्याणकों की पूजाके योग्य हैं और तीनों लोकों के इन्द्र जिनको नमस्कार करते हैं ऐसे भगवान अरहंतदेव तथा समस्त कर्मोसे रहित भगवान सिद्धपरमेष्ठी सत्कृति फर्मके योग्य हैं। भावार्थ--मुनियोंको श्रेष्ठ मुनियोंका कृतिकर्म करना चाहिये । और अरहंत सिखों का सत्कृति कर्म करना चाहिये ॥९४६।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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