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________________ मुलाचार प्रदीप ( ४६८ } [द्वादश अधिकार संसार का स्वरूप समझ विवेकीजन को क्या करना चाहियेश्वभ्रस्थलजलाकाशेजायमालाविषेर्वशात् । म्रियमाणाः पराधोनालभन्तेदुःखमुल्बरणम् ।।३०४७।। सुखदुःखद्वयंभान्ति संसारेनिविवेकिनाम् । किम्बल्सुखलवेनवसवंदुःखंविकिनाम् ।।३०४८।। इत्यशर्माकर ज्ञास्वाभवमोक्षसुखार्णवम् । साधयन्तु बुधाः शोघ्र तपोरत्नत्रयादिभिः ।।३०४६।। प्रथं-ये जीव अपने-अपने कर्म के निमित्त से नरक में उत्पन्न होते हैं, जल, स्थल वा अाकाश में उत्पन्न होते हैं और फिर पराधीन होकर मरते हैं इसप्रकार महा दुःखों को प्राप्त होते हैं । इस संसार में जो निविवेको पुरुष हैं, उनके लिये सुख दुःख दोनों अच्छे लगते हैं और विवेको पुरुषों को सुख किचिन्मान दिखाई देता है, बाकी समस्त संसार महा दुःखमय प्रतीत होता है। अतएव विद्वान पुरुषों को इस संसार को अनेक दुःखों का घर समझकर तपश्चरण और रत्नत्रय के द्वारा बहुत शीघ्र सुख का समुद्र ऐसा मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये ।।३०४७-३०४६।। एकत्व भावना का स्वरूपएको रोगभराकान्तोरुदन दोनोयमालयम् । गच्छेत्स्वजनमध्यान्न कोपि तेनसमग्रजेत् ।।३०५०।। एकोवघ्नाति कर्मारिप ह्यं कोभ्रमतिसंसृतौ । एकोन जायते वेहो एकश्चमियतेसदा ।।३०५१।। यत्नानाहितभॊगर्यः कायः पोषितोपि सः । पादेकं न बजेदेहिनासा दुजनादिवत् ॥३०५२।। क्षत्र ये स्वजना जाताःस्वस्वकार्यपरायणाः । कर्मायत्ता यं यान्ति जोवेनसहते खिलाः ।।३०५३।। एकः पापाजनान्द्रच्छन्नरकं दुःखपूरितम् । पुण्यपावशादेकः स्वर्गसर्वसुखांकितम् ।।३०५४।। प्रसस्थावरकायेध्वेकाकीभ्रमतिदुःखभाक । प्रायम्लेच्छकुलेष्वत्रनगतौविधिवंचितः ।।३०५५।। एकस्तपासिनाहत्याकारातोन स्वपौरुषात् । मोहेनसहभव्योत्र व्रजेन्मोक्षं गुणाकरम् ।।३०५६।। अर्थ-यह जीव अकेला ही रोगी होता है, अकेला हो रोता है, अकेला हो दरिद्री होता है और अकेला ही मरता है, उस समय कुटम्ब परिवार के लोगों में से कोई इसके साथ नहीं जाता । यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है, अकेला ही संसार में परिभ्रमण करता है, सदा अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। यह जीव जिस शरीर को अनेक सुख देनेवाली भोगोपभोग सामग्री से पालन पोषण करता है वह शरीर उन जीवों के एक पैड भी साथ नहीं जाता, दुष्ट के समान वह वहीं पड़ा रहता है । इस संसार में कर्मों के उदय से प्राप्त हुए कुटम्बी लोग जो अपने-अपने कार्य सिद्ध करने में सदा तत्पर रहते थे वे सब इस जीव के साथ भला कैसे जा सकते हैं अर्थात् कभी नहीं ? यह जीव इक? किए हुए पाप कर्म के उदय से अकेला ही दुःखों
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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