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मूलाचार प्रदीप ]
( ४६७ )
[ द्वादश अधिकार
चतुर्गतिषु जोवैश्याद्वेय कान्तिमम् । न गृहोता न मुक्ता या सा योनितिले ।। ३०४२।। मिष्यादिरतिदुर्योगकषायैश्च निरन्तरम् । प्रमावैविषयान्षाः स्वं निम्नम्ति कर्मपुः ।।२०४३ ।।
अर्थ - यह संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पांच प्रकार का है, यह संसार दुःखों से परिपूर्ण है और अशुभ है, ऐसे संसार मैं ये प्राणी अपने कर्मों के उदय से सदा परिभ्रमण किया करते हैं। इन तीनों लोकोंमें ऐसे कोई पुद्गल नहीं हैं जो इस जीव ने कर्म नोकर्म और पर्याप्तियों के द्वारा अनंतबार ग्रहण न किये हों और अनंतबार ही न छोड़े हों । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में ऐसा कोई लोक का प्रवेश नहीं है जहांपर संसार में परिभ्रमण करते हुए ये जीव उत्पन्न न हुए हों अथवा मृत्यु को प्राप्त न हुए हों। इसीप्रकार इस उत्सर्पिणी और अवसर्पिण काल का कोई ऐसा समय नहीं है जिसमें ये प्राणी अपने-अपने कर्मों के उदय से न जन्में हों और न मरे हों । इस संसार में चारों गतियों की योनियों में से प्रवेयक विमान के अंत तक ऐसी कोई योनि नहीं हैं जो इस जीव ने न ग्रहण की हो न मरकर छोड़ी हो । विषयों में अंधे हुए ये जीव मिथ्यात्य, अविरत कषाय, प्रभाव और योगों के द्वारा निरंतर पुद् गलों के द्वारा बने हुए कमों का बन्ध करता रहता है ।।३०३८-३०४३।।
संसार में परिभ्रमण का कारण
इति संसारकान्तारेऽनादघोरेवमन्त्य हो । धर्मरत्नत्रयोयेतं
प्राप्येद्विलो सुपाः || ३०४४ ||
अर्थ — इसप्रकार इन्द्रियों के लोलुपी जीब रत्नत्रय से सुशोभित धर्म को न पाकर अनादि काल से चले आये घोर दुःखमय संसाररूपी वनमें सदा परिभ्रमरण किया करते हैं ।।३०४४।।
संसार में भ्रमरण करते जीव कैसे-कैसे कष्ट भोगते हैं
जन्ममृत्युजरादु खं रोगवलेशतानि च । इष्टवस्तुवियोगं जानिष्ट संयोगसंश्रयम् ||३०४५ || अपमानादीनिवारिय विरहाम्बहून वौर्भाग्यादिमहादुः षान्प्राप्नुवन्तिभयां गिनः ।। ३०४६ ।।
अर्थ - ये संसारी जीव सैंकड़ों जन्म-मरण जरा दुःख रोग और क्लेशों को प्राप्त होते हैं, इष्ट पदार्थो के वियोग और अनिष्ट पदार्थों के संयोग को प्राप्त होते हैं, सैकड़ों अपमानों को प्राप्त होते हैं, दरिद्रता को प्राप्त होते हैं, अनेक प्रकार के विरहों को प्राप्त होते हैं, दुर्भाग्यता को प्राप्त होते हैं और अनेक महा दुःखों को प्राप्त होते हैं ।। ३०४५ - ३०४६ ।