SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदोष] ( १६ ) [तृतीय अधिकार मिथ्यास्थवर्धकान्येय स्थानानि प्रचुरराम्यपि । पश्येज्जातु न सद्बुष्टि ई ग्रत्न मलशंकया । अर्थ-सम्याधुष्टी पुरुषों को कुदेव, कुलिंगी, पाखंडी, उनके मठ, उनके प्रप्तिबिब, कुतीर्थ, कुशास्त्र, छहों अनायतन आदि कभी नहीं देखने चाहिपे । क्योंकि ये बहुतसे स्थान मिथ्यात्वको बढ़ाने वाले हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन रूपी रत्नमें मल उत्पन्न होने की शंका से डर कर ऐसे स्थान कभी नहीं देखने चाहिये ॥६१३-६१४॥ राग उत्पन्न करनेवाले बहुत से स्थानों को नहीं देखना चाहियेघामशालप्रसोल्यावोन् स्थानान् रोग करान वहून् । प्रन्यांश्च पत्तानादीन् स पश्येज्जातु न शुद्धये ।। अर्थ-मुनियों को अपने आत्माको शुद्धि रखने के लिये धाम, कोट, गलियां वा राग उत्पन्न करनेवाले नगर आदि बहुत से स्थानों को कभी नहीं देखना चाहिये । ॥६१५॥ यदि बिना इच्छा के ये पदार्थ दृष्टिगत हों तो दृष्टि नीची करलेंताननोहतवृत्यात्र पचिदृष्टयाघशंकया। रागभोत्याथषा योगी सहसाधोमुखो भवेत् ॥६१६॥ अर्थ-यदि अपनी इच्छाके बिना इन पक्षायों में कभी मुनियों को दृष्टि पड़ जाय तो पाप की शंका से अथवा रागके सुरसे उनको उसी समय अपनी दृष्टि नीची कर लेनी चाहिये अपना मुख नौचा कर लेना चाहिये ॥६१६॥ राग रहित देखने से कर्म बंधन नहीं--- रागषुध्या न पश्यति एसाल्लोके चरन्नपि । कर्मभिर्वभ्यते नाहो किंतुस्यान्मुक्त एव सः ।।६१७॥ अर्थ- यद्यपि मुनि इस संसारमें सब जगह विहार करते हैं तथापि वे राम बुद्धि से इन पदार्थों को कभी नहीं देखते । ऐसे मुनि कर्मोंसे कभी नहीं बंधते किंतु मुक्त होते हैं उनके प्रास्रव नहीं होता किंतु निर्मरा होती है ॥६१७॥ राग सहित देखने से ब्रह्मचर्य का नाशरागयुध्यान प: पायेदिमा तस्य प्रतिक्षणम् । पचिवागः स्वनिर्षिो मायके मामसेन्बाहम् ।। ताभ्यां घोरतरं पापं पापाच्चालिगः मयः । भवेऽनन्तं महाकुल चतुर्गतिभषं प्रवम् ॥१६॥ तथाऽजितेन्द्रियारोग दुर्खियां बंधलात्मनाम् । कथं ब्रह्मवतं तिष्ठेसाहिनाक्य बतं तपः ॥६२०॥ अर्थ-जो मुनि इन पदार्थोंको राम बुद्धिसे देखता है उसके प्रति क्षसमें कहीं राग उत्पन्न होता है, और कहीं मनमें द्वेष उत्पन्न होता है। उन राग द्वषसे प्रतिदिन घोर पाप उत्पन्न होते रहते हैं उन पापों से अनंत भवों में जन्म मरण करना पड़ता है
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy