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________________ मुलाचार प्रदीप । ५१४) [तृतीय अधिकार जाते हैं फिर भला जो पांचों इंद्रियों के लोलुपी हैं वे नरक के स्वामी क्यों नहीं होंगे? अर्थात् वे अवश्य नरक में जायेंगे ||६६६।। चक्री, अर्धचको भी इन्हीं इन्द्रियों के कारण नरक में पहुंचे हैंमन्येऽपि बहवो ये कि बक्रयावयो भुधि। राजानो विषयाशक्त्या गताःश्वभ्र च सप्तमम् ॥ अर्थ-और भी बहतसे चक्रवर्ती अर्द्ध चक्रवर्ती राजा विषयों में प्रासक्त होने के कारण सातवें नरक में पहुंचे हैं ।।७००।। इनके भोगों की कथा कोन कह सकता है ? भुक्त्वा जन्मादिमृत्यन्तं भोगापंचेन्द्रियोषान् । तेषां को गदिलु शक्तः कयां भोगभवां वुधः ।। अर्थ-जो जीव जन्म से लेकर मरण पर्यंत पंचेन्द्रिय के भोगों को अनुभव करते हैं उनके भोगोंसे उत्पन्न होने वाली कथा को भला कौन बुद्धिमान् कह सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥७०१॥ वैराग्य रूपी रस्सी से इन्द्रिय रूपी पशुश्नों को बांधना चाहिएमवेति नानिमः शोघ्न पंचेन्द्रियमृगान् घलान् । वनंतु वृद्धवराग्यपाशेन शिवशर्मणे ॥७०२॥ अर्थ-यही समझकर ज्ञानी पुरुषों को अपना मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये शीघ्र ही वैराग्य रूपी रस्सी से पंचेन्द्रिय रूपो चंचल पशुओं को दृढ़ता के साथ बांधना चाहिये ॥७०२।। संयम रूपी शस्त्रों से इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीतना चाहिएइन्द्रिपारसयो पोरै जिताः संयमायुधः । तैश्च दुर्मोह कर्माद्या हता मुक्तिः करे कृताः ॥७०३।। अर्थ-जो धोर वीर पुरुष अपने संयम रूपी शस्त्रों से इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लेते हैं वे ही पुरुष मोहनीय कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर डालते हैं तथा उन्हींके हाथ में मोक्ष प्राप्त हो जाती है ॥७०३॥ इनको नहीं जीतने वाले मोहनीय कर्म को कैसे जीत सकेंगे-- प्रशारीनपि ये जेतुमक्षयाः क्लोवतां गताः । मोह बुष्कर्मशस्ते हनिष्यन्ति कथं भुवि ॥७०४।। __ अर्थ-जो पुरुष इन्द्रियरूपी शत्रुओंको भी जीतने में असमर्थ हैं उन्हें नपुंसक ही समझना चाहिये । ऐसे पुरुष भला इस संसार में मोहनीय कर्मरूयो शत्रुओं को कैसे नामा कर सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं ॥७०४॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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