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________________ मूनावार प्रदीप मूनाचार प्रदीप ] ( ३७ ) [ प्रथम अधिकार यतोऽत: संगपाकेन, मज्जति प्राणिनोऽखिलाः। गोपु संगपंकेषु, पापदुनिखानिषु ॥२४॥ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस अंतरंग परिग्रह रूपी कोचड़ से मंशा के प्राणी अनाय दूर जाते हैं ॥२४॥ प्रतस्तपो वतैः सार्ष, प्रव्रज्या निष्फलासतां । व्या वस्त्रपरित्यागोऽत्रान्तग्रंथाच्च्युत्तास्मनाम् ॥ ___अर्थ-बाह्य परिग्रहों में डूब जाने से सज्जन पुरुषों के व्रत, तपश्चरण आदि भी सब निष्फल हो जाते हैं। और उनके साथ-साथ वीक्षा भी निष्फल हो जाती है। इसलिये जिन लोगों ने अंतरंग परिग्रहों का त्याग नहीं किया है उनका वस्त्रों का त्याग करना भी व्यर्थ है ॥२४८॥ यथा मुधति कृष्णाहि निर्मोफ ध विषं न भोः । तथा कश्मिरकुधी: यात्रा, दोनिनान्तः परिग्रहान् ।। अर्थ---जिस प्रकार काला सर्प, अपनी कांचली तो छोड़ देता है। परन्तु विषको नहीं छोड़ता; उसीप्रकार कोई कोई मूर्ख वस्त्रों का तो त्याग कर देते हैं परंतु अंतरंग परिग्रहों का त्याग नहीं करते ॥२४६।। अतो मिथ्यास्ववेदांश्च, कषायान् सकलेतरान् । त्यक्तु येऽत्राक्षमास्तेषा, वस्त्रत्यागोऽहिवरभवेत् ।। अर्थ-इसलिये जो पुरुष मिथ्यात्व, वेद, कषाय और नौ कषायों के त्याग करने में असमर्थ हैं; उनका वस्त्रों का त्याग भी सर्प के समान समझना चाहिये । ॥२५०॥ महायत्नेन मवेति, मिथ्यावेतोदयान बुधाः । हास्यावीश्च कषायारीन्, घ्नतु शनिवासिलान् ।। अर्थ-यही समझकर बुद्धिमानों को बड़े प्रयत्न से मिथ्यात्व, वेद, कषाय और नौकषाय रूप समस्त शत्रुओं को अच्छी तरह नाश कर देना चाहिये । ॥२५॥ बाहान्तग्रंथसंत्यागाश्चित्त शुद्धिः परासताम् । जायते च तया ध्यानं, कारण्यवानलम् । अर्थ-अंतरंग और बाह्य परिग्रहों का त्याग कर देने से सज्जनों का हृदय परम शुद्ध हो जाता है तथा कर्मरूपो वन को जलाने के लिये, दावानल अग्निके समान, उत्तम ध्यान प्रगट हो जाता है ॥२५२॥ ध्यानाच्च कर्मणां नाशस्ततो मोक्षोऽसुखातिगः । वाधामगोचरंसौख्यं, नित्यं तत्र भजति ये ।। अर्थ-ध्यानसे कर्मों का नाश हो जाता है; कर्मों के नाश होने से समस्त
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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