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________________ , मूलाचार प्रदीप] [पंचम अधिकार अज्ञान रूप परिणामों से भी पत्र स्त्री लक्ष्मी राज्य भोग आदि कल्याण करनेवाले इस लोक संबंधी पदार्थों को प्राकांक्षा नहीं करते तथा परलोक में होनेवाले स्वर्ग के सुख वा इन्द्र महमिंद्र चक्रवर्तों आदि के पदों को आकांक्षा भी नहीं करते । इसोप्रकार कुदेव कुशास्त्र कुगुरु और कुधर्म को भी इच्छा कभी नहीं करते और न शत्रुओं के जीतने की इच्छा करते हैं। इस प्रकार की दुराकांक्षा जो दूर करना है उसको स्वर्ग मोक्ष की विभूति देनेवाला सारभूत नि:कांक्षित भंग कहते हैं ॥३६-४९॥ इन्द्रिय सुखादि की आकांक्षा के त्याग की प्रेरणाभंगुरं त्रिजगत्सव भोगांगंश्वभकारणम् । कारागारं वपुर्मस्वा कांक्षा हेया सुखादिषु ॥४२॥ अर्थ- समस्त सोनों लोक क्षणभंगुर हैं भोयोपभोग के साधन सब नरकके कारण हैं और पीर कामास समान है यही समझकर सुखादिक की आकांक्षा सर्वथा दूर कर देनी चाहिये ।।४२॥ विचिकित्सा का स्वरूप व भेदद्वन्यभावद्वि मेदाम्यां विधिकित्सा विधामसा । प्राधामुनिवपुर्णातरवितीयाचक्षुधादिजा ।।४।। अर्थ-द्रष्म और भाव के भेद से विचिकित्सा के दो भेद हैं। पहली मुनियों के शरीर से उत्पन्न हुई ब्रव्यविधिकित्सा है और दूसरी मूख प्यास से उत्पन्न होनेवाली भावविचिकित्सा है ॥४३॥ न्य भाव विचिकित्सा का स्वरूप+ मुनीनो मलमूत्रादीन् वातकष्टाविरुग्वजाम् । पश्यता याधणा द्रष्यचिकित्सात्र सा शुभा ॥४४॥ ___ जनेवशासने घोराः क्षत्तुषादिपरीषहाः । यदि सन्ति न चदन्यत्समीचीन किलाविलम् ।।४।। इत्यादि चिन्तनं यच्च कातरैः क्रियते इति । भावाल्यादिचिकित्सा सा स्मृतामिथ्यात्वकारिणी ।। अर्थ-मुनियों के मलमूत्र को देखकर अथवा श्रायु के रोग को वा उनके अन्य रोगों को देखकर जो घृणा करता है वह अशुभ द्रब्यचिकित्सा कहलाती है। यदि जैन सासन में भूख प्यास की घोर परीषह न हों तो बाकी का समस्त जम शासन अत्यंत समीचीन है इसप्रकार का चितवन कातर लोग ही करते हैं और इसी को मिथ्यात्व बढ़ानेवाली भावचिकित्सा कहते हैं ।।४४-४६।। बिभिकिस्सा का त्याग ही निषिचिकित्सा अंग है.. एपात्रशिविषा चित्त हन्यते या विवेक्षिभिः । तस्स्यानिविचिकिताख्यमंगं विश्वसुखप्रबम् ।।४।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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