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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५४ ) [ सप्तम अधिकार द्विधारम्भ कर्माणि पवप्रक्षालनादिकान् । संयतानां च बालानां स्नेहलोभादिकारणः ||२३०२|| great विकादो निहोत्याद्या अपराक्रियाः । परगेहं गता जातु न कुर्यु राधिकाः शुभाः ।। २३१०१ । अर्थ -- श्रेष्ठ अजिकायों को दूसरे के घर जाकर स्नान नहीं करना चाहिये, रोना नहीं चाहिये, श्रेष्ठ श्रन्न पानके बनाने का काम या पकाने का काम नहीं करना चाहिये, सूत नहीं कातना चाहिये, गीत नहीं गाना चाहिये, बाजे नहीं बजाना चाहिये, प्रसि मसि आदि छहों प्रकार के कार्य नहीं करने हिंगे, किसी के स्नेह या लोभाविक के कारण भी किसी संयमी वा बालक के पादप्रक्षालन (पैर धोना) आदि कार्य नहीं करने चाहिये, शृंगारादिक की कथाएं वा विकथाएं या और भी ऐसी हो ऐसी होन क्रियाएं कभी नहीं करनी चाहिये ।।२३०८-२३१०॥ आर्थिक की भिक्षा एवं वन्दना विधि का वर्णन - तिस्रः पंचायवासस्थविरान्सरिताभुषि । अन्योन्यरक्षरगोध काः शुद्ध। हारगवेषिकाः ।।२३११।। पर्यटन्प्रियत्नेन भिक्षार्य गृहपंक्तिषु । षा व्रजन्तिमुनीद्वारा बंधनायैव क्षान्तिकाः । १२३१२ ।। अर्थ- वे प्रजिकाएं शुद्ध प्रहार ढूंढने के लिये जब भिक्षाके लिये जाती हैं। तब लोन पांच या सात वृद्ध श्रमिकाओं के बीच में चलती हैं अर्थात् कुछ अजिकाएं श्रागे पीछे कुछ अंतर से रहती हैं उस समय में भी वे सब एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर रहती हैं। इसप्रकार वे अजिकाएं प्रयत्न पूर्वक पंक्तिबद्ध घरों में भिक्षाके लिये जाती इसीप्रकार जाती हैं ।।२३११-२३१२।। हैं । श्रथवा मुनियों की वंदना के लिये भी आर्जिका, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की वन्दना कितनी दूर बैठकर करेंपंचषट्सप्तहस्तान्तमन्तराले महोतलम् । सूरिपाठकसाधूनां भक्तिपूर्वकर्माजिकाः ।। २३१३ ।। सूगवासनेनेव प्रणामं कुर्वतेन्वहम् । विनयेयोग्यकाले या श्रुतार्थश्वरगाबि ।। २३१४ ।। अर्थ- वे प्रजिकाएं प्रतिदिन वंदना करने के लिये या शास्त्रों के अर्थ को सुनने आदि के लिये योग्य समय पर जब मुनियों के पास जाती हैं तब वे श्राचार्य से पचि हाथ दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर और साधुनों से सात हाथ दूर गवासन से बैठ कर मस्तक झुकाकर उनको भक्तिपूर्वक नमस्कार करती हैं ।।२३१३-२३१४॥ समाचार की महिमा एवं उसको पालन करने का फल - एवयुक्तः समाचारः समासेन तपस्विनाम् बहुमेदोखुर्धर्ज्ञेयो विस्तरे जिनागमात् ।।२३१५॥ विश्वंसगुणाकरं शिवकरं चेममया वणितं, ह्याचारं च चरन्तियेत्र निपुणाः सद्योगिनोचायिकाः । ५
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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