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________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २२० ) [ चतुर्थ अधिकार ये सर्वेपरमेष्ठिनोऽत्रपरमान् मूलोनराख्यान गुमान नित्यं यत्नपराभजन्ति यमिनामाचारयंत्यूजितान व्याख्या. त्येवागरा जगत्त्रयसता सर्वायसांसद्धये ते ये मूलगुणान् प्रवय रखिलान् सारानस्वकीयान् स्तुता: ॥१३७०।। इति धीमूलाधार प्रदोषास्ये भट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते मुलगुणण्यावर्णने प्रतिक्रमण प्रन्याख्यान कायोत्सर्ग लोचा चेलकत्वास्नान क्षितशयनावंतवन स्थितिभोजनकभक्त वर्णनोनाम चतुर्थोषिकारः। अर्थ-ये समस्त मलगण अनुपम गणों के निधि हैं स्वर्ग मोक्ष के कारण हैं, भगवान तीर्थकर परमदेव ने इनका स्वरूप बतलाषा है तथा गणधरदेव और मुनिराज इनको पालन करते हैं, पापरूपी अंधकार को नाश करने के लिये ये सूर्य के समान है, धर्म के समुद्र हैं और सबमें उसम हैं । इसलिये महापुरुषों को अपने समस्त प्रयत्नों के साथ इनका पालन करना चाहिये । जो मुनि प्रमाद रहित होकर प्रतिदिन इन समस्त मलगणों का पालन करते हैं वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले परम और उत्तम सुखों को तथा उत्तम सगुणों को प्राप्त होते हैं फिर वेवों के द्वारा पूज्य ऐसे चक्रवर्ती और तीर्थकर के पद प्राप्त करते हैं तदनंतर तपश्चरण कर केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं और समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इसप्रकार विद्वान लोगों को इन मूलगुणों को महाफल देनेवाले समझकर वैराग्य रूपी तलवार से मोहरूपी शत्रुको मारकर तथा लक्ष्मी कुटुम्ब आदि सबका त्यागकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये मोक्षस्त्री को सखी और सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थको सिद्ध करनेवाली ऐसी जिनदीक्षा धारण करनी चाहिये और फिर उनको प्रतिदिन समस्त दोषों से रहित ऐसे ये समस्त मलगुण पालन करने चाहिए । इस संसार में जो जो अरहंत आचार्य उपाध्याय साधु परमेष्ठी प्रयत्नपूर्वक सर्वोत्कृष्ट मलगुणों को वा उत्तरगुणों को प्रतिदिन पालन करते हैं वा इन्हीं सर्वोत्तम मलोत्तर गुणों को मुनियों से पालन कराते हैं अथवा तीनों जगत के सज्जन पुरुषों को समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए अपनी वाणी से इन्हीं मूलोत्तर गणों का व्याख्यान करते हैं उन समस्त परमेष्ठियों की मैं स्तुति करता हूं। वे समस्त परमेष्ठी मेरे लिये अपने समस्त उस्कृष्ट मूलगुणों को प्रदान करें ॥१३६७-१३७०॥ इसप्रकार आचार्य श्री सकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप में मूलगुणों के वर्णन में प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिमोजन, एक भक्तको वर्णन करनेवाला यह चौथा अधिकार समाप्त हना ।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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