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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २१६) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ-महानत पालन करने वालों को तथा छहों प्रावश्यक पालन करनेवालों की जो विषयों में अभिलाषा होना है उसको व्यतिक्रम कहते हैं ॥६२॥ अतिचार का स्वरूपमहावतस भित्यावश्यादि परिपालने । पालस्मं क्रियते यत्सोतीचारो वतदूषकः ॥६३॥ अर्थ-महागाई समिति अध्यन आणि पाला करने में जो आलस करना है उसको व्रतोंमें बोष लगाने वाला असिचार कहते हैं ॥६३॥ प्रमाचार का स्वरूपव्रतावश्यकशीलानां भंगो पोन दुरात्मभिः । विधीयते सधर्मघ्नोऽनाचारः स्वनसायकः ॥६॥ अर्थ-दुरात्मा वा पापियोंके द्वारा वृत आवश्यक वा शीलोंका जो भंग करना है वह धर्मको नाश करनेवाला और नरकमें पहुंचाने वाला अनाचार कहलाता है ॥६४॥ प्रतिक्रमादि चारों दोष मल उत्पत्ति के कारणएते दोषा हि घरवारः सवंगुलगुरणात्मनाम् । सर्वपा यतिभिस्त्याज्यायस्नेन मल कारिणः ।।६।। यतोमोभिश्चतुर्दोषैबिश्वेमूलगुणा नपाम् । दूषिता न फलस्यत्र स्वर्मोमादौ महत्फलम् ॥६६॥ __ अर्थ-ये चारों वोष समस्त मूलगुणों में मल उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये मुनियों को पूर्ण प्रयत्न करके इनका सर्वथा त्यागकर देना चाहिये । क्योंकि इन चारों दोषों से समस्त मलगुण दूषित हो जाते हैं और फिर मनुष्यों को स्वर्ग मोक्षाविक के महाफल उन मूलगुणों से कभी प्राप्त नहीं हो सकते ॥६५-६६।। मूलगुणों का उपसंहारादि विवरण और मूलगुण प्राप्ति की भावनाअसमगुणमिधानान् स्वर्गमोक्षाविहेतून गणपतिमुनिसेव्यास्तीर्थमार्थः प्रणीतान् । दुरिततिमिरसूर्यान घर्भवानि महान्तो भजत निखिलयस्मात् मूलसमान गुणोमान् ॥६॥ येऽमूनभूलपुणान् प्रमावरहिताः संपालपम्पन्वहं लेलोकत्रयसंमवांश्चपरमान सोल्योसमान सगुणान् । संप्राप्यानुजिनेचा पदवी देवाचा केवलं शानं कर्मरिपून् निहत्य तपसा मोक्षं लभन्तेऽचिराम् ॥६॥ विज्ञायेतिफलं महापजनाः मोहारिमाहत्य च निवासिवरेण साई मखिलेलक्ष्मी कुटवादिभिः । दीक्षा मुसिसली परार्थमननी ह्याबायमोक्षाप्समे सर्वान् मूलगुणान्मलाविरहितान् भोः पालयम्त्वग्वष्टम् ।।६६।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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