SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ] । पठन प्रधिकार में तीन शुपालन हो। है । प्रथम शुमध्यान का फल सर्वार्थसिद्धिपर्यंत गमन करना है, दूसरे शुक्लध्यान का फल केवलज्ञान की प्राप्ति होना है। तीसरे शुक्लध्यान का फल समस्त कर्मों का क्षय होना है और चौथे शुक्लध्यान का फल मोक्षको प्राप्ति होना है ।।२०८५-२०६८।। शुक्लध्यान के स्वामी श्रादि का प्रपेक्ष कथनउपशान्तकषायस्य शुक्समाधजिनो दिलम् । तथा क्षीरणकषायस्य निकषायल्म चापरम् ॥२०८६। शुक्ललेश्या बलाधान स्थितिरान्तमुहलिको। सायोपशमिकोभाव प्रायशुक्लस्य कथ्यते ।।१०।। ___एतच्चतुर्षियं ध्यानंतसंहनना भुवि । यथातध्येम कुर्वन्तु विकलातोतरेतसः ॥२०६१।1।। भावनां भावयन्यत्रशुक्लानां स्वात्मतासमम् । होनसहननादक्षाः शुक्लध्यानाप्तपेनिशम् ।।२।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने उपशांत कषाय वाले के पहला शुक्लध्यान बतलाया है तथा क्षीण कषाय वा अकषाय वाले के बाकी के तीनों शुक्लध्यान होते हैं । शुक्ललेश्या इस ध्यानका पालंबन है इसकी स्थिति अंतर्मुहर्त है, तथा पहले शुक्लध्यान में क्षायोपशमिक भाव रहते हैं। जिनके हृदय में किसी भी प्रकार की विकलता नहीं है और जो दृढ़ संहनन को धारण करनेवाले हैं उनको यह चारों प्रकार का शुक्लध्यान यथार्थ रीसिसे धारण करना चाहिये । जो हीन संहननको धारण करनेवाले चतुर पुरुप हैं उनको इस शुक्लध्यानको प्राप्ति के लिये अपनी आत्माके साथ-साथ निरन्तर शुक्ल. ध्यानकी भावना का चितवन करते रहना चाहिये ॥२०८६-२०१२॥ ध्यानकी महिमायावर्श सिद्धसादृश्यस्वारमानध्यायतिस्फुटम् । तावृशं निर्मलयोगी निश्चितलभतेऽचिरात् ॥१३॥ निजारमध्यानमात्रेणानन्तदुष्कर्मपुड्गलाः । सोयन्सेध्यानिनां मून यमा बजेग चायः ॥२०६४।। ध्यानप्रवोपयोगेनमोहाशानतमोखिलम् । प्रणश्यतिसतां शीघ्र नायन्ते जानसम्मः ।।२०६५।। योगशुद्धिः प्रजायेत सध्यानेन ययायथा । पुंसां महवंयः सर्वा उत्पद्यन्ते तथा तथा ॥२०६६॥ अर्थ-योगी पुरुष सिद्धके समान अपने निर्मल प्रात्मा का जैसा ध्यान करते हैं वैसे ही शीघ्र निर्मल प्रात्माको प्राप्ति उन्हें अवश्य हो जाती है। जिसप्रकार बन्न से पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं, उसीप्रकार अपने आत्मा का ध्यान करने मात्रसे ध्यानी पुरुषों के अनन्त प्रशुभ कर्मों के पुद्गल क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । इस ध्यानापी दोपफ के सम्बन्ध से सज्जन पुरुषों का मोह और अज्ञान रूपी समस्त अंधकार रहत शीघ्र नष्ट हो जाता है और बहुत ही शीघ्र जानरूपी संपत्ति प्रगट हो जाती है । इस
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy