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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४८४ ) [द्वादश अधिकार आक्रोशादीनबहूत्वात्रिशुद्धधासहनंयित् । विनाक्लेशेन वारणामाकोशजय एव सः ॥३१५६॥ अर्थ-जी मुनिराज मिथ्यावृष्टि, म्लेच्छ, चांडाल, शत्र, पापी और दुरात्माओं के कठोर वचनों को अपमान जनक शब्दों को तिरस्कार वा धिक्कार के वचनों को वा अनेक प्रकार के गालीगलौच के शब्दों को सुन करके भी मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक उनको सहन करते हैं, उनको सुनकर कभी किसी प्रकार का क्लेश नहीं करते उन चतुर मुनियों के आक्रोश परिषह जय कही जाती है ॥३१५५-३१५६।। वध परीषह जय का स्वरूपमिथ्यावअनंदुष्टः शत्रुभिः श्वभ्रगामिभिः । कोपादिभिःप्रयुक्ताश्चवघवंधारिताहमाः॥३१५७॥ सधः प्रागहरायत्रसान्तेधोरयोगिभिः । योगशुद्ध माद्यनाशायधमरणमेवतत् ।।३१५८।। ____ अर्थ- जो मुनिराज अपने पापों को नाश करने के लिये मिश्यादृष्टि, दुर्जन, दुष्ट, नरफगामी और शत्रु आदि के द्वारा क्रोध पूर्वक किये गये बध, बंधन वा ताड़न प्रादि को सहन करते है तथा वे धीर धार मुनि नमवचन-काय की शुद्धता पूर्वक उसी समय प्राण हरण करनेवाले बघबंधनादि को भी सहन करते हैं उसको बघ परिषह जय कहते हैं ॥३१५७-३१५८॥ यांचा परीषह जय का स्वरूपच्याधिक्लेशशलायर्यहहूपवासपारणः । योच्यते नौषधाम्मवादियांचासहन मेवतत् ॥३१५६।। अर्थ-जो मुनि सैकड़ों व्याधि और क्लेशों के हो जाने पर भी तथा अनेक उपवासों के बाद पारणा करनेपर भी कभी औषधि वा जल प्रादि की याचना नहीं करते हैं उसको यांचा परिषह जय कहते हैं ॥३१५६ ।। अमाभ परीषह विजय का स्वरूपअलामो योन्नपानावेः षष्टाष्टमाविपारणे । विशुद्धया साले तुष्टगलाभविजयोत्र सः॥३१६०।। अर्थ--जो मुनिराज बेला तेला प्रादि अनेक उपवास करके पारणा को निकलें और अन्न पानादिक का लाभ न हो तो भी वे मुनिराज संतुष्ट होकर मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक उस भूख प्यासकी तथा आहारादिक के न मिलने को बाधा को सहन करते हैं इसको अलाभ परिषह विजय कहते हैं ॥३१६०॥ रोग परीषह अय का स्वरूपकुष्ठोदरप्पयावातपित्तज्वरादिरकपातः । दुस्सहः पापपाकोत्विश्वदुःखनिबन्धनः ॥३१६१।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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