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मूलाचार प्रदीप
( ३.६ )
[पाटम अधिवार - __ अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, ध्यान, अध्ययन प्रावि सामियों के कार्य के लिये पुस्तक प्रावि उपकरणों को देना, शास्त्रोंको व्याख्या करना, पर्मोपदेश देना तथा युक्ति पूर्णक और भी सामियों को सहायता करना तथा यह महायता बिना किसी बवले की इच्छा के करना सो सब गैयावृत्य कहलाता है। ॥१९७६-१९८०॥
वैया कृत्य करने का फलयावत्पविषाणां विचिकित्सापरिक्षयः । तीपंकराक्सिरपुण्यंगशःस्वसंघमान्यता ॥१९८१॥ रत्नत्रयविक्षिप्रवचनस्य च जायते । बरसलत्वं तपोवृद्धिः परोपकार अमितः ॥१९५२॥ प्राचार्यपाठकादौा वयावृत्पेन संभवेत् । धर्मध्यानं मनः स्वस्थ पौडावुनिनाशनम् ।।१९८३॥
अर्थ-यावृत्य करने वालों के विचिकित्सा का सर्मथा नाश हो जाता है अर्थात् निविचिकित्सा अंगका पूर्ण पालन होता है, तीर्थकर प्रकृति आदि श्रेष्ठ पुण्य का बंध होता है समस्त संसार में यश फैलता है, अपने संघ में मान्यता बढ़ती है, रत्नत्रय को विशुद्धि होती है, साधर्मो जनों के साथ अत्यन्त प्रेम बढ़ता है, तपश्चरण को वृद्धि होती है और सर्वोत्कृष्ट परोपकार होता है । प्राचार्य वा उपाध्याय आदि को यावृत्य करने से धर्मध्यान उत्पन्न होता है मन निराकुल होता है तथा पीड़ा और दुान का सर्भपा नाश हो जाता है ।।१९८१-१९८३॥
वैयावृत्य करने की प्रेरणा-- इत्यत्र स्वाम्ययोमत्मा वैयावृत्यं हितं महत् । सबलाः सर्वशकास्वेनान्यः कुतुयुद्धये ॥१६॥ .
अर्थ-इसप्रकार यावृत्य के करने से अपना भी महा हित होता है और अन्य जीवों का भी महा हित होता है । यही समझकर बलवान और पूर्ण शक्तिशाली पुरुषों को अपना आत्मा शुरु करने के लिये स्वयं यावृत्य करना चाहिये और दूसरों से भी गैयावत्य कराते रहना चाहिये ।।१९८४॥
__स्वाध्याय तपका स्वरूप उसके भेदस्वस्य वा परभग्याना हितोष्यायो विषोयते । शानिभिर्योधयाताय स स्वाध्यायोगुणाकरः ।।५।। बाचनापृाछनाल्योऽनुप्रेक्षाशम्नायजितः । धर्मोपवेशएवेति स्वाध्यायः पंचधा मतः ।।१६६६।।
अर्थ-जो जानी पुरुष अपना पाप नाश करने के लिये अपने आत्मा का हित करने के लिये तथा अन्य भष्य जीवों का हिल करने के लिये सिडांत पाक्षि प्रषों का