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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३७२ ) [ अष्ठम अधिकार कहने का कोई कारण नहीं है ऐसे वचन दूसरों के द्वारा पूछने पर वा बिना पूछे वे । मुनिराज कभी नहीं बोलते हैं ॥२४३१॥ वे मुनिराज दुमरों की निंदा स्तुति में गूगे समान होते हैंपश्यन्लोविविधानान्नः श्रृण्वन्तजितान् । कर्णश्च ते हि जानन्तश्चित्तेतारेतरान भुवि ॥३२।। मूकीमत्ता इवात्यर्थ लोके तिष्ठन्ति साधवः । कुर्वन्स्यन्यस्य निन्वा न वार्ता स्तुत्यकारणम् ॥३३॥ __अर्थ-यद्यपि वे मुनिराज अपने नेत्रों से अनेक प्रकार के अनर्थ देखते हैं, कानों से बड़े-बड़े अनर्थ सुनते हैं, और अपने हृदय में सार प्रसार समस्त पदार्थों को जानते हैं तथापि वे साधु इस लोकमें गूगेके समान सदा बने रहते हैं, वे कभी किसी की निवा नहीं करते और न किसी की स्तुति करनेवाली बात कहते हैं ।।२४३२-२४३३॥ व मुनिराज विकथा नहीं तो करते हैं एवं न ही सुनते हैंस्त्रोकथाकथाभक्तराजचौरमषाकथाः । खेटकर्षटवेशाद्रिपुराकरादिजा: कथाः ।।२४३४॥ नठानां सुभटानां च मल्लानामिन्द्रजालिमाम् । धृ तकारकुशोलाना बुष्टम्लेच्छादिपापिनाम् ।। परिणां पिशुनानां च मिथ्यावृशां कुलिगिमाम् ! रागिरणाषिणामोहाधिीनांत्रिकथाः था ।। इत्याग्रा प्रपरा वशीः कथाः पापखनोविदः । कथयन्ति म मौनावयाः जातुअण्वन्तिमाशुभाः ।। अर्थ-मौन धारण करनेवाले वे मुनिराज स्त्रीकथा, अर्थकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा वा मिथ्या कथाएं कभी नहीं कहते हैं। इसीप्रकार खेट, कर्वट, देश, पर्वत, नगर, खानि आदि की कथाएं भी कभी नहीं कहते हैं । तथा के मुनिराज नट, सुभट, भल्ल इन्द्रजालिया, जत्रा खेलने वाले, फुशील सेवन करनेवाले, दुष्ट, म्लेच्छ, पापी, शत्र, चुगलखोर, मिथ्याष्टि, कुलिंगी, रागी-षी, मोही और दुःखी जीवों की व्यर्थ की विकथाएं कभी नहीं कहते हैं। वे चतुर मुनि पाप की खानि ऐसी और भी अनेक प्रकार की विकथाएं कभी नहीं कहते हैं तथा न कभी ऐसी अशुभ विकथाओं को सुनते हैं ॥२४३४-२४३७॥ विकथा करनेवाले की मुनिराज संगति भी नहीं करते हैं--- विकथाचारिणो स्वायत्थाजन्मविषायनाम् । दुषियो क्षणमात्र म संगमिच्छन्ति पोषनाः ।।३।। ___ अर्थ--जो विकथा कहने वाले लोग अपना और दूसरों का जन्म व्यर्थ ही खोते हैं, ऐसे मूर्ख लोगों को संगति वे बुद्धिमान मुनिराज एक क्षणभर भी नहीं चाहते ॥२४३८॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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