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मूलाचार प्रदीप
[प्रथम अधिकार चारी पुरुषों को, स्त्रियों का संसर्ग क्षणमान्न भी कभी नहीं करना चाहिये ।।१८।। यतः संसर्गमात्रेण, स्त्रीणां संजायते सताम् । फलंक दुस्स्यजं लोके, प्राणसन्देह एव च ॥१८॥
अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस संसार में स्त्रियोंका संसर्ग करने मात्रसे सज्जन पुरुषों को कभी भी न छटने वाला कलंक लग जाता है तथा उनके प्राणों में भी संदेह हो जाता है ।।१८६।। चित्रादि निर्मिता नारी, मनः क्षोभं करोति भो । साक्षात्पुसा सुरूपा स्त्री, किमनर्थ करोति न।।
अर्थ-अरे ! देखो । चिन्न की बनी हुई स्त्री भी पुरुषों के मन में क्षोभ उत्पन्न कर देती है फिर भला, अत्यंत रूपवती साक्षात् स्त्री क्या क्या अनर्थ नहीं कर सकती ? अर्यात् सब कुछ कर सकती है ।।१६०॥ नवनीतनिभं चित्तं, ह्यग्निज्वालामगिनाम् । कि नाकृत्यं नृणां कुर्यात्तयोः संसर्ग एव च ॥१६॥
अर्थ--पुरुष का हृदय, मक्खन के समान है; और स्त्री का हृदय अग्निकी ज्वालाके समान है। फिर भला, इन दोनों का संसर्ग क्या २ अनर्थ नहीं कर सकता; अर्थात् सब तरह के अनर्थ कर सकता है ॥१६॥ परं व्याघ्रादि चौराणा, संसर्ग: प्राणनाशकृत् । न च स्त्रीणां जगन्नियो, व्रतघ्नो नरफ प्रदः ।।
अर्थ-सिंह, सर्प और चोर आदि का संसर्ग यद्यपि प्राणों को नाश करने वाला है तथापि वह तो श्रेष्ठ है परन्तु संसार भर में निदनीय, व्रतों को नाश करने चाला और नरक में ढकेलने वाला स्त्रियों का संसर्ग कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता ॥१६॥ नारीसंसर्गमात्रेण, बहवो योगिनो भुवि । नष्टाः श्वन गलाः केचिच्छु यंते श्री जिनागमे ॥
अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव के आगम से जाना जाता है कि इस संसार में स्त्रियों का संसर्ग करने मात्रसे अनेक योगी नष्ट हो गये हैं और कितने ही योगी नरक में पहुंचे हैं ।।१३।। मत्वेति सर्वयत्नेन, संसर्गोऽनर्थकृधः। स्परज्यः स्त्रीणां च सर्वासां, कलंक शंकयातराम् ॥
___अर्थ-यही समझकर, बुद्धिमान पुरुषों को कलंक लगने की शंका से, पूर्ण प्रयत्न के साथ, समस्त स्त्रियों का संसर्ग छोड देना चाहिये ; क्योंकि स्त्रियों का संसर्ग अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाला है ।।१६४।।