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________________ पानी मुलाचार प्रदीप ] ( २४७ ) शीघ्र ही उसमें आये हुए दोषोंको आच्छादन करते रहना चाहिये ।।५२-५४॥ स्थितिकररण अंगका स्वरूप और उसके पालन करने की प्रेरला सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रेभ्यो घोरतपोभुवि । परीषहोपसर्गाद्यं चलतां गृहियोगिनाम् ।। ५५ ।। सुस्थितिकरणं यत्च्च क्रियते स्वक्रियादिषु । हितेष मंकरैर्वाक्यैः सुस्थिती करणंहि तत् ॥५६॥ परिज्ञाय जगत्साशंस्तपोधर्मव्रताविकान् । स्वमुक्तिसाधकास्तेषु स्थिती कर रामाचरेः ॥५७॥ ॥ [ पंचम विकार अर्थ -- यदि कोई श्रावक वा मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्र वा घोर तपश्चरण से अथवा परोषह वा उपसर्ग से चलायमान होते हों तो हित करने वाले धर्मरूप वचनों से उनको उनकी उसी क्रिया में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग कहलाता है। ये तप धर्म और व्रतादिक सब जगतमें सारभूत हैं और स्वर्गमोक्षके साधन हैं यही समझकर उनमें स्थितिकरण श्रवश्य करना चाहिये ।।५५-५७।। वात्सल्य अंग का स्वरूप और उसके पालन करने की प्रेरणा figy नानिर्वाणगामिषु । धर्मप्रवर्तन्वत्र सद्यः प्रसूतधेनुवत् ।।४८।। स्नेहं भवत्यादिकं यच्च धर्मबुद्धया विधीयते । धार्मिकंर्धमसिद्धययं तद्वात्सत्यं जगद्धितम् ॥५६॥ चतुविषं महासंघ विश्वलोकोत्तमं परम् । गुणैरन्तातिगं जश्या तवात्सल्यंभजान्वहम् ॥६०॥ अर्थ - धर्मात्मा पुरुष अपने धर्मको सिद्धि के लिये स्वर्गमोक्ष में जाने वाले hari प्रकार के संघ तथा धर्मकी प्रवृत्ति करने वालों में धर्म बुद्धि से जो अपने बच्चे में हाल की प्रसूता गाय के समान स्नेह करते हैं और भक्ति करते हैं उसको जगत का हित करनेवाला वात्सल्य अंग कहते हैं । यह चारों प्रकार का संघ समस्त लोक में 4 उत्तम है और अनंत गुणोंसे सुशोभित होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है । यही समझकर प्रतिदिन इस वात्सल्य अंग का पालन करना चाहिये ।।५६ ६०॥ प्रभावना अंगका स्वरूप और उसके माहात्म्य प्रकट करने की प्रेरणामूलोत्तरगुणंयोगवशमूलानि पूर्वकः । तपोभितुःष्करं जनि विज्ञान भानुरश्मिभिः ॥ ६१ ॥ उच्छिद्यान्यमतध्वान्तंविव्रिलोके प्रकाशकम् । धर्माहिंयासनादीनां यत्साप्रभावना मता ।। ६२ ।। सत्यभूतं जगत्पूज्यं भव्याप्तं जिनशासनम् । भवघ्नं मोक्षवं वीक्ष्य व्यक्तीकुर्वन्तु घोधनाः ।। ६३ ।। अर्थ – जिसप्रकार वृक्ष में जड़ होती है और फिर उसकी शाखाएं डालियां आदि होती हैं उसीप्रकार मुनियों के मूलगुण और उत्तरगुण होते हैं । इन मूलगुणों को धारण करके तथा घोर तपश्चरण और ज्ञान विज्ञान रूपी सूर्यको किरणों से अन्य मत
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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