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________________ मोवार प्रदीप ] ( ५६ ) [ द्वितीय अधिकार अर्थ -- आहार और बर्तनों को एक प्रवेश से दूसरे प्रदेश में ले जाना, अथवा बर्तनों को भस्म से भांजना श्रथवा दीपक जलाकर मंडप को प्रकाशित करना या घर में प्रकाश करना 'प्राविष्कार' नामका दोष है। यह दोष पाप और प्रारंभ को बढ़ाने वाला है इसलिये इसका त्याग कर देना चाहिये ।। ३६४-३८५ ।। (९) कीस दोष स्वायत बेला गृहारं पात्रेभ्यो दीयते तथा ॥ ३८६ | परमं वाइवा दायाशनं च यत् । तत् सर्व क्रीत घोषत्वं जानीहिक्लेश पापदं ॥ ३८७॥ - अपने वा दूसरों के गाय, भैंस आदि चेतन पदार्थ अथवा रुपया पैसा यदि अचेतन पदार्थों को वेकर, आहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'क्रीतदोष' है अथवा अपनी विद्या वा मंत्रको देकर श्राहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'कीत बोष' हैं । यह बोध भी क्लेश और पापको उत्पन्न करनेवाला है ।। ३६६-३८७|| (१०) प्रामिच्छ दोष ऋणेनातीय दाता, यत्परात्र परगेहतः । भक्त्या ददाति पात्राय, दोषः 'प्रामिन्छ' एव सः ॥ अर्थ- जो दाता दूसरे के घरसे, कर्ज के रूप में छाल चावल, रोटी आदि लाता है और उसे भक्ति पूर्वक मुनियों को देता है उसके (१०) प्रामिच्छ' नामका दोष लगता है ।। ३८८ ॥ = (११) परिवर्तक दोष - स्वान दत्त्वा न्यगेहादानीयात्र च यत् । वतिभ्यो दीयते भवस्था, स दोष: 'परिवर्तितः ॥३च्छा अर्थ- जो दाता अपने भात या रोटी को देकर दूसरे के घर से मुनियों को देने के निमिस श्रेष्ठ भात रोटी लेकर भक्ति पूर्वक मुनियों को देता है उसको ( ११ ) 'परिवर्तक' नामका दोष लगता है || ३८६ ॥ " (१२) अभिघट दोष - farfree at देश सर्व प्रभवतः । तद्दशाभिष्टं द्वेषा, योग्यायोग्यप्रकारतः ॥३२० अर्थ - (१२) 'अभिघट' दोष के २ भेष हैं एक 'देशाभिघट' और दूसरा 'सर्वाभिघट' उसमें जो देशाभिघट के २ मेव हैं-एक योग्य और दूसरा अयोग्य || द्विभ्यादि सप्तमेभ्यः पंक्तिरूपेण वस्तु यत् । श्रागतं चान्नपानादि, तद्योग्यं योगिनां मतं ॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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