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मूलाचार प्रदीप
[ प्रथम अधिकार अर्थ-जो भगवान् वर्धमान स्वामो मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्यके समान हैं और जिन्होंने इस संसारमें प्रत्यंत देदीप्यमान प्राचारांग को प्रकाशित किया है तथा उन वर्धमान स्वामी का कहा हुआ जो प्राचारांग इस पंचम कालमें दिनों दिन घटता हुया भी इस पंचभकाल के अंत तक बराबर बना रहेगा ऐसे प्राचार्राग को निरूपरण करने वाले और प्राचार पालन करने में पारंगत भगवान् वर्षमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूं ॥४-५॥ शेषा ये तीर्थकार, प्राचारांगप्रत्तिनः। प्राचारभूषिता बंधारित्र जगत् स्वामिभिः स्तुताः ।। अजिताथा जिनापीमाः, विश्वभहितोताः । संतु से मे स्वमूत्याप्त्य, वंचिता संस्तुता मया ।।
अर्थ-भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक मध्यके तीर्थकर भी आचारांग की प्रवृत्ति करने वाले हैं, प्राचार से विभूषित हैं, तीनों लोकों के स्वामी जिनको वंदना करते हैं। स्तुति करते हैं तथा जो समस्त भव्यजीवों के हित करने में उद्यत रहते हैं और मैंने भी जिनकी वंदना और स्तुति की है, ऐसे वे तीर्थकर परमदेव अपनी अनंत चतुष्टयरूपी विभूति मुझे भी प्रदान करें ॥६-७।। विदेहे पूर्व संजे यः, प्रवत यति मुक्तये । अद्यापि भग्यजीवाला, माचारोग सुवृत्सवम् ॥८॥ तस्मै तीर्थकृते श्री सीमंधर स्वामिने नमः । लब्गुणाय जिनेन्द्राय, ह्यानन्सगुरपसिंधवे ॥६॥
अर्थ-जो भगवान् सीमंधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्रमें भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये आज भी निर्मल चरित्र को बतलाने वाले प्राचारांग को प्रवृत्ति कर रहे हैं, जो अनंत गुणों के समुद्र हैं और जिनेन्द्र हैं ऐसे भगवान् सीमंधर स्वामीको उनके गुण प्राप्त करने के लिये मैं नमस्कार करता हूँ ॥६॥ येऽत्राधिक सहोपद्वय सन्ति जिनाधिपाः । प्राचारत्तिनः पुसा, दिव्येन ध्वनिना भुघि ॥१०॥ प्राचारभूषणा अन्तातीताः कालत्रयोद्भवाः । वंद्याः स्तुत्याः सुरेन्द्रायस्ले ये सन्त्वस्य सिद्धये ॥
अर्थ-इस ढाई द्वीपमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों में होनेवाले जिन तीर्थकर वा सामान्य केलियों ने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा इस संसार में भव्य जीवों के लिये प्राचारांग को प्रवृत्ति की है, जो प्राचार से विभुषित हैं और इन्द्रादिकदेव भी जिनकी वंदना और स्तुति सदा किया करते हैं, ऐसे अनंत तीर्थंकर वा सामान्य केवली भगवान मेरे इस कार्य की सिद्धि करें ॥१०-११॥ प्राचारांगोक्तमार्गमाराध्य रत्नत्रयं द्विषा। सपसाहत्य कर्माणि, घेऽनिर्धारणमद्भतम् ॥१२॥