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________________ मूदाचार प्रदीप [प्रथम अधिकार प्राचारफलमाप्तांस्तान्, सिद्वान् लोकाग्रवासिनः। दिव्याष्टगुणशर्माधीन, वंदेऽनतान् शिवाप्तये॥ अर्थ-जिन्होंने प्राचारांगमें कही हुई विधिके व्यवहार और निश्चय वोनों प्रकारके रत्नत्रय का पाराघन कर, तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोका नाश किया है और इसप्रकार अदभत मोक्षपद प्राप्त किया है तथा जो इसप्रकार प्राचार पालन करने के फलको प्राप्त हुये हैं, जो लोक शिखरपर विराजमान हैं और दिव्य पाठ गुण रूपी कल्याणके समुद्र हैं ऐसे अनंत सिद्धों को मैं मोक्ष प्राप्त कराने के लिये पंदना करता हूं ॥१२-१३।। प्राचति स्वयं साक्षात पंचाधारं मुखाकरम् । प्राचारशास्त्रयुक्त्या ये, शिष्याणा सारयति च ॥ स्वर्गमुक्त्या दिसौख्याय, सूरयो विश्ववन्दिलाः । तेषां पादाम्बुजान नौमि, पंचाचारविशुद्धये ॥१५॥ अर्थ-जो प्राचार्य, सुखको खान हैं, ऐसे पांचों प्राचारों को स्वयं साक्षात पालन करते हैं, जो प्राचार शास्त्रों से सदा सुशोभित रहते हैं, जो शिष्यों को स्वर्गमोक्षके सुख प्राप्त कराने के लिये, उन्हीं पंचाचारों को उन शिज्योंसे सदा पालन कराते हैं और समस्त संसार जिन्हें वंदना करता है ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी के चरण कमलों को मैं अपने पंचाचारकी विशुद्धिके लिये सदा नमस्कार करता हूं ॥१४-१५॥ आचारप्रमुखांगानि, निष्प्रमावाः पठन्ति थे। पाठन्ति विनेयानां, मानायागान हानये ॥१६॥ पाठकास्त्रिजगवंद्याः महामति विशारदाः। विश्ववीपाश्च ये तेषां, क्रमाजानंगहेतवे ।।१७।। अर्थ-जो उपाध्याय अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये या अज्ञान को दूर करनेके लिये प्रमाद रहित होकर प्राचारांग आदि अंगों को सदा पढ़ते रहते हैं और शिष्यों को पड़ाते रहते हैं तथा जो तीनों लोकों के द्वारा वंदनीय हैं, महाबुद्धि को धारण करनेसे जो अत्यंत चतुर हैं, और जो संसारके समस्त पदार्थों का स्वरूप दिखलाने के लिये दीपक के समान हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी के घरण कमलों का मैं उन समस्त अंगों की प्राप्ति के लिये प्राश्रय लेता हूं ॥१६-१७॥ ज्ञानाचाराविस गास् त्रिकालयोगधारिणः । उग्रवीप्तमहाघोर, तपोलंकृतविग्रहाः ॥१८॥ साधयो ये त्रिलोकार्या, निष्प्रमाबाः जितेन्द्रियाः । गुहाप्रचाविकृतावासास्तेभ्यः सुसपसे नमः ।। अर्थ-जो साधु आचार आदि समस्त अंगों को जानते हैं, जो तीनों काल योग धारण करते हैं, जिनका शरीर उग्रतप, दीप्ततप, महातप और घोरतप प्रादि तपों से अलंकृत है, जो तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य हैं, प्रमादरहित हैं, जितेन्द्रिय है और जो
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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