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सकलकीर्ति आचार्य परिचय
संस्कृत भाषा एवं साहित्य के विकास में जैनाचार्यों एवं सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा । है। यद्यपि भगवान महावीर ने अपना दिव्य सन्देश अर्धमागधी भाषा में दिया था और उनके परिनिर्वाण के पश्चात एक हजार वर्ष से भी अधिक समय देश में प्राकृत भाषा का बच्चस्व रहा और । उसमें अपार साहित्य लिखा गया, लेकिन जब जंनाचार्यों ने देश के बुद्धिजीवियों की रुचि संस्कृत को पोर अधिक देखो तथा संस्कृत भाषा का विद्वान् ही पंडितों को श्रेणो में समझा जाने लगा तो उन्होंने संस्कृत भाषा को अपनाने में अपना पूर्ण समर्थन दिया और अपनी लेखनी द्वारा संस्कृत में सभी विषयों के विकास पर इतना अधिक लिखा कि अभी तक पूर्ण रूप से उसका इतिहास भी नहीं लिखा जा सका। उन्होंने काव्य लिखे. पुराण लिले, कथा एवं नाटक लिखे । आध्यात्मिक एवं सिद्धान्त ग्रंथों की रचना की। वर्शन एवं न्याय पर शीर्षस्थ ग्रंथों की रचना करके संस्कृत साहित्य के इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। यही नहीं प्रायुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र शास्त्र, गणित जैसे विषयों पर भी उन्होंने अनेक ग्रन्थों को रचना की। संस्कृत भाषा में अन्य निर्माण का उनका यह कम गत डेढ़ हजार वर्षों से उसी प्रवाध गति से चल रहा है। प्राचार्य समन्तभद्र, प्राचार्य सिद्धसेन, प्राचार्य पूज्यपाद, प्राचार्य रविषेरण, प्राचार्य प्रकलंकदेव, प्राचार्य जिनसेन, विद्यानन्द एवं प्रमतचन्द्र जसे महान प्राचार्यों पर किसे हर्ष नहीं होगा ? इसी तरह प्राचार्य गुणभन्न, वादोभसिंह, महावीराचार्य. प्राचार्य शुभचन्द्र, हस्तिमल्ल, असे प्राचार्यों ने संस्कृत भाषा में अपार साहित्य लिख कर संस्कृत साहित्य के यश एवं गौरव को द्विगुरिगत किया। १४ वीं शताब्दी में ही देश में भट्टारक संस्था ने लोकप्रियता प्राप्त की। ये भट्टारक स्वयं ही प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाघु के रूप में सर्वत्र समादृत थे। इन्होंने अपने ५०० वर्षों के युग में न केवल जैन धर्म को ही सर्वत्र प्रभावना को किन्तु अपनो महान विद्वत्ता से संस्कृत साहित्य को अनोखो सेवा को और देश को अपने त्याग एवं ज्ञान से एक नवीन दिशा प्रदान की। इन भट्टारकों में भट्टारफ सफलकीति का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है ।
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