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________________ ( ४०४ ) मुक्ति स्त्री के प्राप्ति हेतु किसका त्याग करें कलत्रसंगमेवाभ्यां द्विधात्यागो भवेद्वियः । कृत्वातवुभयत्यागंलभतेमु किकामिनीम् ।।२६३१।। मूलाधार प्रदीप ] [ नवम अधिकार अर्थ - भगवान जिनेन्द्रवेष ने स्त्री का त्याग और परिग्रहों का त्याग इस प्रकार वो तरह का त्याग बतलाया है, श्रतएव विद्वान पुरुष इन दोनों का त्याग कर मुक्तिस्त्री को प्राप्त करते हैं ।।२६३१ ।। मुनि को ५ स्थावर के विराधना नहीं करने की प्रेरणा पृथ्याविकायिकाजीवा ये पृग्ध्यादिवपुः श्रिताः सतिपृष्ठ्या विकारम्ने ध्रुवं तेषां विराधना ||३२|| तस्मात्पृध्यादिकारम्भोद्विविधस्त्रिविधेन च । यावज्जीवं न कल्पेत जिनमार्गानुचारिणाम् ||३३|| अर्थ-यदि पृथ्वीके खोदने श्रादि का आरंभ किया जायगा तो पृथियोकायिक जीवों का तथा पृथिवीकायके आश्रित रहनेवाले जीवों का अवश्य ही नाश होगा उनकी विराधना अवश्य होगी। अतएव जिनमार्ग के अनुसार चलने वाले मुनियों को मनaar-कायसे जीवन पर्यंत दोनों प्रकार का ( पृथिवीकायिक और पृथिवो कायाश्रित) पृथिवी आदि का आरम्भ सवा के लिये छोड़ देना चाहिये तथा इसीप्रकार जलकायिक, अलकायाश्रित, वायुकायिक, वायुकायाश्रित, अग्निकायिक, अग्निकायाश्रित, वनस्पतिकायिक और वनस्पतिकायाश्रित जीवों की विराधना का भी त्याग कर देना चाहिये । ॥२६३२-२६३३॥ कौन मुनि रत्नत्रय से भ्रष्ट है-पृथ्यादिकामिकान्सत्त्वानेतान् श्रोजिनभाषिताम् । नचषषति यः स्याद्भ्रष्टो रश्नत्रयात्कुश्री ॥ अर्थ - जो मुनि भगवान जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे हुए इन पृथिवीकायिक, पृथिवीकायाश्रित, जलकायिक, जलकायाश्रित, अग्निकायिक, अग्निकायाश्रित, वायुकायिक, वायुकायाश्रित और बनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायाश्रित जीवों का श्रद्धान नहीं करता है उस दुर्बुद्धि को रत्नत्रय से भ्रष्ट हो समझना चाहिये ।। २६३४॥ जीवराशि से भरे लोक में मुनि कैसी प्रवृत्ति करें विश्ववाकुले लोके कथं वरेयसंयमी । कथं तिष्ठेत् कथं कुर्याच्छयनं चोपवेशनम् ।।२६३५ ।। कथं कथं माहारं कममाचरेत् । कथं धसे क्रियाकर्मकवध्नातिनाशुभम् ।। २६३६ ।। अर्थ - कदाचित् कोई यह प्रश्न करे कि इस लोक में सब जगह जीवराति भरी हुई है, फिर भला मुनियों को किस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिये, किस ५
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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