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________________ भूलाचार प्रदीप ] प्रथम अधिवार । महाव्रतों को परिभाषाहिंसाया अनुतास्तेयादब्रह्मतः परिग्रहात् । फरस्नामनोवचः कार्यः, कृतकारितमानसः ॥५०॥ सर्वया विरतिर्या च क्रियते मुनिपुंगवः । महानतानि तान्यत्र, कथ्यन्ते योगिनां जिनैः ।।५१ ।। अर्थ-श्रेष्ठ मुनिराज अपने मन, बचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जो (१) हिसा (२) झट (३) चोरी (४) कुशील और (५) परिग्रह इन ५ पापों का पूर्ण रूपसे सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको भगवान् जिनेन्द्रदेव मुनियों के महावत कहते हैं ॥५०-५१॥ (१) अहिंसा महावत का लक्षणहवा च पपुषा वाचा, कृतेन कारितेन च। स्वानुमत्या प्रथलेन, रक्षा यात्र विधीयते ॥५२॥ मत्वात्मसदृशान् जीयान्, नवमेवैः षडंगिनाम् । मूलं सर्ववतानां स्यात् पंचमं तन्महाव्रतम् ।।५३।। अर्थ-छहों कायके समस्त जीवों को अपने आत्मा के समान समझकर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोबना के ९ भेवों से प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना पहला अहिंसा महावत कहलाता है । इस अहिंसा महायत को समस्त ब्रतों का मूल समझना चाहिए ।।५२-५३॥ कायेन्द्रियगुरणस्थान्त, मार्गरणाश्च कुलान्यपि । योनीश्च सर्वजीवानां, सात्वा सम्यग जिनागमे ।। तेषां विविध जन्तूना, मितिरक्षा प्रयत्नतः । कर्तव्या मुनिभिनित्यं, सर्वथा च कृतादिभिः ।।५५।। अर्थ-मुनियों को सबसे पहले जिनागम के अनुसार समस्त जीवों की काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल और थोनियों को समझ लेना चाहिए और फिर उन अनेक प्रकारके जीवों की रक्षा सब तरहसे, बड़े प्रयत्नसे, मन-वचन-काय और कृत. कारित-अनुमोदना से करनी चाहिए ॥५४-५५।। शिलाद्रि धातुरत्नादि, खरपृथ्व्यंगिनो बहून् । स्वादि मृदुपृथ्वीकायांश्च, सूक्ष्मेतरान् सदा ।।५६।। हस्तमा गुलि काष्ठ, शलाका खर्पराविभिः । न समेत मानयेन्नय, न लिखेग्नेय लेखयेत् ११७! न भंज्यान भजयेग्नंव, न हन्यान् घातयेन च । जातु संघटयेन्नैव, पीडयेनदयासपीः ।५८1 खनंतं च लिखन्तं बा, भक्तयन्सं परं जनम् । निघ्नतं घट्टयस्तं वा, पीडयन्तं धरात्मन: ।५। नानुमन्येत योगीऽन्यार्थी प्रकारविराधना । न कार्या मुनिभिस्तेषां योगराद्यन्नताप्तये ।।६०॥ अर्थ-शिला, पर्वत, धातु, रत्न आदि में बहुतसे कठिन पृथ्वी कायिक जीव रहते हैं तथा मिट्टी आदि में बहुतसे कोमल पृथ्वी कायिक जीव रहते हैं तथा उनके भो
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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