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________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार स्थल, सूक्ष्म आदि अनेक नेव हैं । इसलिए मुनिराज अपने हाथ से, पर से, उंगली से, लकड़ी से, सलाई से, या खप्पर से पृथ्वी कायिकजीव सहित पृथ्वी को न खोदते हैं। न खुदवाते हैं, न उस पर लकीरें करते हैं, न कराते हैं, न उसे तोड़ते हैं, न तुड़वाते हैं न उस पर चोट पहुंचाते हैं, न चोट पहुंचवाते हैं तथा अपने हृदयमें दया बुद्धि धारण कर न उस पृथ्वीको परस्पर रगड़ते हैं न उसको किसी प्रकार की पौड़ा देते हैं । यदि कोई अन्य भक्तपुरुष उस पृथ्वी को खोदता है या उस पर लकीरें करवाता है, उस पर चोट मारता है। रगड़ता है। या अन्य किसी प्रकारसे उन जोवों को पीड़ा पहुंचाता है तो वे योगी उसकी अनुमोदना भी नहीं करते। इसप्रकार वे मुनिराज अहिंसा महाव्रतको प्राप्त करने के लिए उन पृथ्वीकायिक जीवोंकी विराधना कभी नहीं करते ।।५६-६०11 ये पृथ्वीकायिका जीवाः, ये पृथ्वीकायमाथिताः । पृथ्वीकायसमारंभाव् ध्र वं तेषां विराधना 11 तस्मात् पृथ्वीसमारंभो, द्विविधस्त्रिबिधेन च । पावज्जोवं योग्योत्र, जिनमार्गानुचारिशाम् ॥६२।। __ अर्थ—पृथ्वौकाय का समारंभ करने से, पृथ्वीकायिक जीवों की तथा पृथ्वीकाय के आश्रय रहने वाले जीवों को विराधना अवश्य होती है। इसलिए जिनमार्ग के अनुसार चलने वाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से दोनों प्रकार का पृथ्वी का समारंभ कभी नहीं करना चाहिए ॥६१-६२॥ न श्रद्दधातियोजोवान्, पृथ्वीकायगतानिमान् । समवेदीर्घसंसारी, लिंगस्थोऽप्यति दुर्मतिः ॥३॥ अर्थ-जो दुर्बुद्धि जिन लिंग धारण करके भी पृथ्वी कायमें प्राप्त हए जीवों का श्रद्धान नहीं करता है, उसे दीर्घ संसारी ही समझना चाहिये ।।६३॥ मत्वेति तत्समारंभो, जातु कार्यों न योगिभिः । स्वेन बाम्येनमुक्त्याश्य, चश्यगेहादि कारणः॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्वयं वा दूसरे के द्वारा जिनालय आदि बनवाकर भी पृथ्वी का समारंभ नहीं करना चाहिए ।।६४॥ जलकामिक जीवों का रक्षणस्थूलाणुबिवुमेघावश्यादिजलदेहिनाम् । न कुर्यात्कारयेत्रव, स्पर्शसंघट्टनादिकम् ।।६५।। अर्थ-मेघ वा बरफ की बूंदों में रहने वाले जलकायिक जीवों का स्पर्श व संघटन न कभी करना चाहिए और न कराना चाहिए ॥६५॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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